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________________ ११६ त्याग में वस्तु हावी नहीं रहती, उसकी छोड़ने की वृत्ति मुख्य रहती है । छोड़ने में, त्याग में उसे आनन्द आता है। दान देने में, आसक्ति छोड़ने में उसे प्रसन्नता होती है । उसको याद रखने की भी उसे आवश्यकता महसूस नहीं होती। उस त्याग में भी राग हो जाये तो फिर त्याग ही कहाँ ? जहाँ सम्मोहन होगा वहाँ त्याग हो ही नहीं सकता । मूर्च्छा और त्याग मूर्च्छा का तात्पर्य है वस्तु की कीमत हम से अधिक हो जाना। धनी होने का अर्थ सम्पत्ति को मात्र इकट्ठा करने से नहीं है, उसे अपने से बाहर नहीं होने देने से है। पैसा कमा लेने के बावजूद जो उसे छोड़ नहीं पाता, दान नहीं कर पाता वह अमीर नहीं, गरीब है। पकड़ गरीबी का लक्षण है, क्योंकि आप उसे बाँट नहीं पा रहे हैं, वस्तु पर आपका कोई अधिकार नहीं है। इसलिए दान करने वाला ही सही धनी कहा जाना चाहिए। सही धनी वह है जो त्याग करता है, पर उसकी शेखी नहीं बघारता, सूची बनाकर नहीं रखता। त्यागवृत्ति दूर रहने वाला व्यक्ति आशा से बँधा रहता है। सदैव वह आशा लगाये रहता है कि इससे अभी और अधिक पाना है। इसलिए वह दु:खी रहता है । गरीब व्यक्ति दुःखी नहीं रहता, वह कष्ट में रहता है । प्रयत्न करने पर भी वह कुछ नहीं पाता। आशा करना विषाद को निमन्त्रित करना है । एक की पूर्ति हो जाने पर दूसरी की आकांक्षा दौड़ पड़ती है और यह तांता लगा रहता है, कभी खत्म नहीं होता। इसलिए दुःखी होना उसका स्वभाव बन जाता है। वस्तुत: आशाजन्य दुःख इन्द्रधनुष-सा होता है जो पास आने पर खो जाता है। आकाश को कभी छुआ नहीं जा सकता भले ही वह कहीं पृथ्वी से छूता हुआ दिखे। इसी तरह आशा-वासना कभी तृप्त नहीं हो पाती। अतृप्त होने से दुःख का सागर बढ़ता ही रहता है । धन की उपयोगिता है मूल आवश्यकता की पूर्ति हो जाना। वस्तु का आवश्यकता से अधिक होना मिट्टी के समान है। पानी की उपयोगिता प्यास शान्त होने तक रहती है। प्यास शान्त होने पर वह निरर्थक हो जाता है। इसी प्रकार व्यक्ति जब अनावश्यक रूप से वस्तु इकट्ठा करने लगता है, तब उसका लोभ काम करने लगता है । फिर वह साधन नहीं, साध्य बन जाता है। अब जब साध्य बन जाता है, तब व्यक्ति कंजूस हो जाता है, मात्र संग्रह की वृत्ति हो जाती है। वह विसर्जन नहीं कर पाता। इसलिए धनी प्रायः कंजूस हुआ करते हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि बाहर का हमारा समूचा वातावरण हमारे अन्तर की वृत्ति को प्रतिबिम्बित करता है। ऐसा अनजाने ही वह करता रहता है । अचेतन रूप में उसकी आदत काम करती रहती है। हम इसीलिए दूसरे के दोषों को देखने के तो Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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