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में अर्जुन ने जब उसे बाणबिद्ध कर दिया तब भी उसने विप्र वेषधारी कृष्ण को अपना स्वर्णदन्त काटकर दान दे दिया। कवचदान तो उनका प्रसिद्ध ही है। इस तरह के ढेरों उदाहरण हमारे इतिहास में भरे पड़े हुए हैं। सामाजिक कल्याण के लिए महर्षि अंगिरस के माध्यम से बालक उत्तंक के जैसे आत्मोत्सर्ग के उदाहरण भी स्मरणीय हैं।
त्याग और इन्द्रियवृत्ति
इन्द्रियाँ संवेदनशील होती हैं। वे बाह्य पदार्थों पर घूमकर सूचनायें एकत्रित कर मन के साथ उनमें रमण करती हैं। इस रमण की प्रक्रिया में इन्द्रियाँ चेतना पर हावी रहती हैं, जिससे आसक्ति-भोग का संसार गहरा होता जाता है। पर यदि चेतना इन्द्रियों पर हावी है और इन्द्रियाँ चेतना का अनुसरण करती हैं, तो वह त्याग है।
इन्द्रियों का दास होने पर हमारी सारी वृत्तियाँ भोग की ओर दौड़ पड़ती हैं, अतृप्त होने पर स्वप्न और कल्पना का जाल मन बुनने लगता है। स्वप्न हमारे मन का ही विस्तार है। निर्बाध और स्वतन्त्र होकर स्वप्न - लोक में विचरण करना भोगी की वृत्ति बन जाती है। इन्द्रियाँ पदार्थ का स्पर्श करती हैं और हमारा मन उस स्पर्श में आसक्त हो जाता है।
पाँचों इन्द्रियों का क्षेत्र अलग-अलग है। स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र अपने-अपने विषय पर घूमते हैं इसलिए परस्पर विरोधी भी हैं। उनकी यह परस्पर विरोधी वृत्ति एक जटिल और दुःखदायी स्थिति में पहुँचा देती है। आंख जिसे सुन्दर मान रही है, नाक उसे स्वीकार करे यह आवश्यक नहीं है। वस्तु सुन्दर है, पर वह कडुवी है और दुर्धित है तो उसे न रसनेन्द्रिय स्वीकार करेगी और न घ्राणेन्द्रिय समीप जायेगी। तब दुःख उत्पन्न होगा, मन संघर्ष करेगा और मन की प्रबलता के साथ उस विशेष इन्द्रिय की विषयवृत्ति प्रकट होगी ।
इन्द्रियाँ विषय के ऊपर दौड़ लगाती हैं और हमारा मन उन्हें भीतर ले जाना चाहता है। उन्हें भीतर ले जाने की वृत्ति में हमारी जागरूकता, चुनाव और सम्यग्दृष्टि नहीं रही तो त्याग हो ही नहीं सकता । मन तो कचड़े की पेटी है। सब कुछ उसमें चला जाता है। भीतर किसे ले जाना है, यह हमारे विवेक पर निर्भर होना चाहिए। इसलिए मूर्च्छा को परिग्रह कहा गया है।
परिग्रही व्यक्ति का संसार आकलन और संग्रह तक ही सीमित होता है उसकी तिजोरी भरी रहनी चाहिए, इसी में उसे सुख मिलता है । वह तिजोरी सोने से भरी हो या पत्थर से, यदि उसका उपभोग नहीं होता है तो सोने या पत्थर में क्या अन्तर है ? परिग्रही को पकड़ होती है, उसमें उपयोगी वृत्ति नहीं होती। यही पकड़ वस्तुतः उसकी दरिद्रता या गरीबी का लक्षण है। वस्तु उस पर हावी है । उसे वह छोड़ नहीं सकता।
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