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________________ ९६ के स्थान पर क्रमश: करुणा, समता और सहिष्णुता पैदा कर देता है। इच्छाओं, आकांक्षाओं और आशाओं से बन्धा व्यक्ति अपनी रंग-बिरंगी पतंग को आकाश में उड़ा तो देता है, पर वह बिना डोरी के जल्दी ही धरती पर गिरकर धराशायी हो जाती है। इसलिए सर्वप्रथम इच्छाओं को संयमित करना चाहिए। अन्यथा जिस प्रकार शिवाजी गरमागरम खिचड़ी को बीच से खाना शुरु करने पर जल गये थे, उसी तरह इच्छा पर अनुशासन किये बिना संयम की कल्पना ही नहीं की जा सकती। वह जल जाना मात्र होगा। इच्छा प्राणी का लक्षण है अपथ्य पर उसका परिष्कार किया जाना आवश्यक है। आदत भी इच्छा का ही रूप है। वह भी संयम से दूर हो सकती है। इसलिए आदत को अपरिवर्तनीय नहीं मानना चाहिए। ध्यान और चिन्तन प्रक्रिया द्वारा उनसे मुक्ति पायी जा सकती है। आदत का और आहार का सम्बन्ध मस्तिष्क से रहता है और ये दोनों वातावरण के माध्यम से संस्कार का रूप ले लेते हैं। आहार के स्वरूप से मस्तिष्क सम्बन्धित रहता है। "जैसा खाओ अन्न, वैसा होवे मन" आहार यदि हित, मित और सात्विक है तो भावनायें निश्चित ही तद्रूप हो जायेंगी। अन्यथा इच्छाओं पर अनुशासन करना कठिन हो जायेगा। भिखारी राजा को भी जब परमात्मा के सामने मांगते देखता-सुनता है, तब वह राजा को भी भिखारी मानने लगता है और उसको भी अपनी श्रेणी में गिनने लगता है। साधना काल में नीरस भोजन पर बल दिया जाता है; क्योंकि भोजन और अध्यात्म का गहरा सम्बन्ध है। भोजन इन्द्रियों को पोषित करता है, उनकी क्षमता बढ़ाता है। इसलिए साधक का भोजन सात्विक होना चाहिए। तामसिक भोजन इन्द्रियविकारी होता है। साधक जिन्दा रहने के लिए भोजन करता है, भोजन के लिए जिन्दा नहीं रहता। इसलिए संयमी व्यक्ति को सात्विक एवं शाकाहारी होना चाहिए। शरीर चिन्तन संयमी का गहन साधन है। शरीर की अपवित्रता, अविनश्वरता और जड़ता का चिन्तन शरीर से मोहासक्ति कम कर देता है। इसके लिए कतिपय आसने भी हैं जिनसे एकाग्रता बढ़ती है। कायोत्सर्ग, प्राणायाम और रीढ़ की हड्डी को सीधा रखना शारीरिक अनुशासन है। __ वाचिक अनुशासन में भाषासमिति का पालन किया जाता है। भाषा वही बोलो जो हित, मित और प्रिय हो, अन्यथा मौन रहना ही श्रेयस्कर है। सत्यवादन संयमी की सही साधना है। संयम में मानसिक अनुशासन भी जरूरी है। इसके बिना संयम अधूरा रह जाता है। मन स्वरूपतः पवित्र होता है, कोरा कागज जैसा रहता है, पर हमारी भावना, संस्कार और वृत्तियाँ उस पर चित्र बनाती रहती हैं। मन ही आश्रय का कारण है और मन ही Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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