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________________ करें । १३) १,००,००० एक लाख जाप पूर्ण करें । १४) पुनः उतने ही सोनचंपा के पुष्प से जाप जपकर उठते समय सारे पुष्पों को अग्नि में होम करें । १५) जपते जपते छ महीने में जाप संपूर्ण करें । १६) जब तक इस मंत्र का जाप संपूर्ण न हो तब तक स्त्रीसंग न करें-ब्रह्मचर्य पालन करें । १७) अल्प भोजन करें । १८) अल्प निंद्रा-अल्प क्रोध करें (अर्थात् क्रोध अल्प कर दें।) १९) इस विधि से मंत्र की साधना करने से लक्ष्मीदेवी प्रसन्न होकर साक्षात् दर्शन देकर वरदान देती है | आगम-शास्त्र में भी लक्ष्मी का मंत्र इस प्रकार ही बताया है । "आदौ प्रणवः ततः श्री च, ही क्ी कामाक्षरं ततः । महालक्ष्यै नम" श्वांते, मंत्रो लक्ष्म्या दशाक्षरः ॥ यह कल्प हमें अनुभुत है | उपर नं.१० निर्दिष्ट किये अनुसार गुरू को रजतद्रव्य देने का लिखा है वहाँ गुरूपूजा करें । यदि गुरू महाराज का योग न हो 'तो गौतमस्वामी जी की अथवा धर्मदाता एवं मंत्रदाता गुरू का वासक्षेप आदि से गुरूपूजन करें। और सोनपुष्प का होम नहीं करते हुए पुनः उतना जाप कर लें। गुरुवार और मृगशीर्ष नक्षत्र को इस विधान और मंत्र के जाप हेतु उत्तम माना गया होने पर भी पंचांगो में इस योग को मृत्युयोग के रूप में माना जाता है, फिर भी इस आराधना के लिये इसी योग को उत्तम मानना चाहिये । इसी प्रकार की लक्ष्मी प्राप्ति के लिए श्री भक्तामर स्तोत्र की ४४वीं गाथा का एक सुंदर कल्प है। उसमें भी इस के जैसी ही आराधना विधि है । ‘महाप्रभाविक नवस्मरण' (श्री साराभाइ नवाब संपादित वि.सं. १९९५ की आवृत्ति) के पृ.४५९ पर इस का निम्नानुसार सुंदर वर्णन है : “यह ४४ा काव्य-ऋद्धि-मंत्र का स्मरण करने से और यंत्र को पास में रखने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है । और इस मंत्र का नित्य पूजन करने से एवं भक्तामर स्तोत्र का संपूर्ण पाट करने से अष्टसिद्धि और नवनिधि की प्राप्ति होती है ।... पवित्र होकर पीले वस्र धारण कर, उत्तर दिशा में पंचामृत कलश, चक्रेश्वरी देवी की सिंहासन पर स्थापना कर के पूर्व की विधि अनुसार सर्व सामग्री एकत्रित कर के अष्टप्रकार से चक्रेश्वरी का पूजन आरती तक सब कुछ करके पीले पुष्प से पूजन करके अष्टगंध से चांदी के पतरे पर यंत्र की स्थापना करके, पीली जपमाला से इस काव्य, ऋद्धि और मंत्र का १२,५०० साडे बारह हजार अथवा पूरा एक लाख जाप छह महीने में संपूर्ण करके मंत्रसिद्ध करें। बाद में निरन्तर १०८ वार जाप करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। पाठांतर रूप में बतलाया गया है कि, “४१ दिन तक १०८ बार जाप जपने से और यंत्र पास रखने से मनोवांछित कार्य की सिद्धि होती है और जिसे अपने आधीन करना हो उसके नामका चितवन करने से वह अपने वश होता है।" इसी गाथा के तंत्र में बतलाया गया है कि, “पृष्यार्क (रवि-पुष्प) योग में सफेद आंक कि जिसकी सातवी गांठ जो गणेश आकार होती है उसे लाकर द्रव्य-धन- के अंदर (केश बोक्स के अंदर) रखने से अष्टसिद्धि नवनिधि की प्राप्ति होती है ।" इस प्रकार आराधना की बहुत सी रीतियाँ, बहुत से प्रकार है, उनमें से किसी भी प्रकार से आराधना करके भक्तामर की आराधना की जा सकती है। • समूह पाठ का महत्त्व आज भक्तामर का पाठ समूह में करने की प्रणाली बहुत ही प्रचलित हुई है । पूज्य गुरुदेव विक्रमसूरीश्वरजी म.सा. नित्य ऐसा पाठ करवाते थे । ऐसे समूह पाठ से सारे ही गाँव पर के कष्ट दूर होने के प्रत्यक्ष अनुभव हुए है । "कलौ संघे शक्तिः ।" - यह वाक्य ऐसी आराधना के लिए भी सत्य सिद्ध होता है ।... अवश्य ही ऐसे समूह-पाठ के आयोजन करने ही चाहिए । श्री भक्तामर के कतिपय अनुष्ठानो के पश्चात् "बृहदशांति" बोलने का भी कल्पों में है । इसलिए अभी हम सूमह भक्तामर के बाद वृहदशांति का पाठ भी अवश्य करते हैं । श्री भक्तामर का यह आराधना-पाठ जब संगीत के साथ चलता है तब कोई अनूठा आनन्द अनुभव होता है। श्री भक्तामर स्तोत्र की महिमा-कथाओं में बतलाया गया है कि पू.आ. हेमचंद्राचार्य महाराज के समय में कपर्दि नाम का एक श्रावक भक्तामर-स्तव का, वर्ण-मात्रा से शुद्ध और एकाग्र होकर वीणा के नाद के साथ पाठ करता था। इस प्रकार भक्तामर के गीत को संगीत साथ पाठ करना चाहिए । XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX आराधना-दर्शन आराधना-दर्शन २४९ www.jainelibrary.org २४९) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only
SR No.002588
Book TitleBhaktamara Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyashsuri
PublisherJain Dharm Fund Pedhi Bharuch
Publication Year1997
Total Pages436
LanguageSanskrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size50 MB
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