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उस तावीज को पंचामृत से प्रक्षाल कर कंठ में धारण करने से बुद्धि की वृद्धि होती है । १) इस यंत्र को चांदी के पतर पर अष्टगंध से निरंतर लिखना । २) दीप-धूप-नैवेध फल से पूजा करना । ३) श्वेत चमेली के पुष्प सदा चढायें ।
यह विधियाँ तो स्पष्ट ही है । शुभयोग, तिथि, वार इत्यादि भक्तामर के पाठ में बतलाये हैं वें भी चल सकते है । उस के अलावा सिद्धि योग, अमृतसिद्धियोग, जैसे योगों का ग्रहण पंचांग में देखकर किया जा सकता है।
भोजपत्र में आलेखन हेतु अष्टगंध को शुभ द्रव्य गिना जा सकता है । अनार (दाडिम) के वृक्ष की टहनी (कलम) से मंत्र बहुत ही अच्छी तरह लिखा जा सकता है। फिर भी वैसे अनुभवी लोगों के पास बैठकर लिखा जा सकता है । तावीज में रखने के बाद उसे बंद करने की विधि में थोडी-सी सावधानी से करना अन्यथा पंचामृत से प्रक्षाल करने आशातना का संभव है ।
दूसरे विभाग में निरंतर चांदी के पट (पतरे) पर यंत्र लिखने का कहा है, वह भी छह माह के लिये समझना चाहिए और इसी बीच काव्य-ऋद्धि-मंत्र का जाप चालु रखना चाहिए । सवा लाख की निश्चित संख्या कर सके तो अति ही उत्तम होगा । (आराधना-स्थान इत्यादि के लिये आगे कहे गये कल्प के अनुसार ही करें)।
एकासन (आखिर बन ही न सके तो रात्रि भोजन एवं अभक्ष्य त्याग तो अवश्य करे ).. छ माह दौरान कभी तो तीन एकासन करके (१२५०) बारह सौ पचास जाप कर लेने चाहिए । जाप के दौरान प्रभुपूजा, जीवदया के कर्तव्य, सुपात्रदान, साधुसेवा, ज्ञानपूजन, गुरूपूजन आदि सत्कार्य करने चाहिये । खास तो इस समय के बीच किसी के साथ तीव्र भाव से बैर-विरोध या झगडा न हो जायें उसका ध्यान रखें । जीव मात्र के साथ मैत्रीभाव पुष्ट करते चलें।
लक्ष्मी प्राप्ति हेतु एक अन्य भी सुंदर कल्प का मार्गदर्शन भक्तामर की २६वीं गाथा अतीव प्रमोदजनक है । इसका प्रार्थना का भाव हृदय की भावनाओं को उभार दे हिलोर चढायें ऐसा है । "तुभ्यं नमः तुभ्यं नमः' बोलते हुए भक्ति मानों विवेचन में से वचन में और वचन में से निर्वचन में जाकर शांति में लीन हो जाती प्रतीत होती है । इस गाथा का मंत्र तो पू.आ. गुणाकरसूरिजी की वृत्ति में है, परन्तु उसका आम्नाय नवस्मरण के ग्रंथ में की किसी अन्य टीका से लिया गया हो ऐसा सम्भव है । गुणाकर सूरिजी की टीकामें तो लिखा है
“सुरिभि सद्यस्क पीतपुष्पैः लक्षजापात् सिद्धः ।" अर्थात् सुगंधियुक्त एक लाख पुष्पो से जाप करने से मंत्र सिद्ध होता है। "ॐ श्री ही कली महालक्ष्म्यै नमः ।"
-यह महामंत्र है।
• विधि १) पंचम नक्षत्र (मृगशीष) और गुरूवार जिस दिन हो उस दिन जाप प्रारंभ करें । २) जाप प्रारंभ करने से पूर्व जिस घर में अथवा जिस स्थान पर जाप करते हो उस जगह की दीवारों को चुना पोतवायें । ३) दाहिनी ओर लक्ष्मीदेवी की मूर्ति की स्थापना करें । लक्ष्मीदेवी की मूर्ति के स्वरूप के लिये दीखाई गई ९ बातें इस प्रकार है । (A) चार हाथ (B) पीला सुंदर वर्ण (c) शरीर के दोनों हाथ पर जिससे पानी टपकता हो वैसे कमल के फूल । (D) देवी के तीसरे बायें हाथ में पानी भरा हुआ जलपात्र-कळश- जो उपर श्रीफल आदि से अलंकृत हो । (E) चौथे नीचे के दाहिने हाथ में अंकुश-इस प्रकार के चार हाथ । (F) दाहिनी और बायीं ओर मूल ग्रंथ में पीले वर्ण के लिये “जरद" शब्द प्रयुक्त है हाथी का रूप (G) प्रत्येक हाथी सूंढ में एक एक चामर लिये हुए (H) देवी की आरती करते हो वैसी देवी की सुंदर मूर्ति हँसते वदन वाली (1) पीले वस्र को जिसने ओढा है वैसी लक्ष्मीदेवी की मूर्ति - ४) ऐसी मूर्ति की जमीन से एक हाथ में ऊंचे स्थापना करें । ५) उस मूर्ति के आगे एक अग्निकुंड करें । ६) उस अग्निकुंड के निकट एक कम्बल या कटासणा बिछाकर बैठें । ७) स्नान करके- ८) पवित्र बनकर के- ९) गुरु की आज्ञा लेकर- १०) गुरू को रजतद्रव्य अर्थात् चांदी की चौअनी रूपया आदि अपनी इच्छा और शक्ति के अनुसार जो भी हो वह देकर अर्थात् विधिवत् गुरू पूजन करके । ११) हाथ में केरबा की जपमाला रखे । (मूल में यहाँ "कपूर" शब्द प्रयुक्त किया गया है) । १२) प्रतिदिन १०८ जाप
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आराधना-दर्शन XXXXXXXXXXXXXxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
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