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तो दक्षिण भारत के सुविख्यात ज्योतिषी बी.वी. रामनने ज्योतिष में एक नई ही पद्धति का आरम्भ किया है । ये गुरुशक्ति के अनुसंधान के महान उदाहरण हैं । गुरू प्रत्यक्ष हो या परोक्ष, गुरू अभ्यंतर हो या बाह्य, परन्तु गुरुशक्ति अर्थात् प्रकाशशक्ति है और उसका अनुसंधान आवश्यक है ।
अज्ञानतिमिरांधानाम् ज्ञानाजनशलाकया ।
नेत्रमुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ ज्ञान की अंजनशलाका से जो नेत्रों को खोल देते हैं, दृष्टि का उद्घाटन कर देते हैं वही गुरू है । 'गुरू' को आप नाम से नहीं तो , सर्वनाम से भी जाने यह आवश्यक है । यह प्रसिद्ध श्लोक 'येन' से गुरूशक्ति का अनुसंधान करता है और तस्मै' पद से गुरूशक्ति में अपने समर्पण को पहुँचाता है ।
प्रस्तुत भक्तामर के आराधक को चाहिये कि किसी भक्तामर के महासाधक को गुरू अवश्य बनायें । पू. गुरुदेव विक्रमसूरीश्वरजी महाराज के पास से बहुत से आत्माओं ने विधिवत् भक्तामर का पाठ ग्रहण किया है । पू. गुरुदेव की भक्तामर पर अपार श्रद्धा जम गई थी। ऐसे श्रद्धा के सागर समान् गुरू के पास से भक्तामर स्तोत्र अंगीकार करना चाहिये । भक्तामर का साधक मानतुंगसूरीश्वरजी महाराजा को तो भक्तामर आराधक परम गुरूपद पर स्थापित करें यह आवश्यक है | मानतुंगसूरीश्वरजी महाराज की अनूठी भक्ति इस स्तोत्र के आराधक को अत्यंत ही सहायक होगी।
विशिष्ट गुरूभगवंत के पास ही संपूर्ण भक्तामर अथवा भक्तामर-सम्बन्धित कोई श्लोक या मंत्र प्राप्त करने हों तो भक्तामर स्तोत्र का पाठ कव देना, कब स्तोत्र-दीक्षा या शिष्य-दीक्षा देना यह गुरू ही निश्चित कर लेते है । परन्तु भक्तामर की टीकाओं में होनेवाला उल्लेख भी यहाँ भक्तामर स्तोत्र की आराधना कब करें इस विषय में मार्गदर्शन प्रदान करता है । एक बात यह आराधनादर्शन लिखते हुए ध्यान में आती है कि यदि भक्तामर स्तोत्र की रचना के दिन ही भक्तामर ग्रहण किया जाय तो सुन्दर होगा । परन्तु भक्तामर के उपलब्ध साहित्य में से भक्तामर की रचना किस तिथि पर हुई यह ज्ञात हो नहीं पा रहा है । फिर भी ऐसा अन्दाज़ चित्त में बैठता है कि वैशाख शुक्ल-५, वैशाख शुक्ल-१० अथवा वैशाख शुक्ल-१५ का दिन भक्तामर का रचना दिन हो सकता है । वसंततिलका वसंत मास का प्रतिनिधित्व करता है । वसंतऋतु में चैत्र और वैशाख दो महीने समझे जाते है । चैत्र मास को तो वर्ण्य मास गिना जाता है और शुक्लपक्ष तथा पूर्णातिथि का भक्तामर की आराधना में महान आदर माना गया है । अतः वैशाख शुक्ल-१५ का दिन शुभ सर्वोत्तम मानना रहा ।
सूरिमंत्र कल्प के विधानकार सूरिमंत्र के विशेष आराधन के लिये श्री ऋषभदेव भगवान के, श्री चंद्रप्रभ भगवान के एवं श्री महावीरस्वामी भगवान के जन्मकल्याणक अथवा केवलज्ञान कल्याणक के दिनों को (आराधनाथ) सुंदर बताते हैं । (“सूरिमंत्रकल्प समुच्चय' पृ. १४४)
अतः यहाँ पर भी दादा ऋषभदेव भगवान के जन्म कल्याणक के दिन को-राजस्थानी चैत्र कृष्ण वदी अष्टमी को भी पवित्र दिन मानना चाहिये और केवलज्ञान कल्याणक के शुभ दिवस महा वद-११ को भी पवित्र दिन मानना चाहिये । चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन से तो वर्षीतप का महान मांगलिक प्रारम्भ होता है . ऐसा सुंदर दिन, सिद्धाचल जैसा तीर्थ और किसी महान गुरूभगवंत का योग हो तो इस स्तोत्र की आराधना का आनंद निराला ही अनुभव में आ सकता है । उसमें भी गुरुपुष्य-रविपुष्य जैसे महान योग हो, अपना चंद्र अनुकूल हो और जन्मकुंडली में भी पंचम स्थान पर एवं सूर्य जैसे ग्रहों पर गुरू जैसे शुभ ग्रह की दृष्टि पड़ती हो तो भक्तामर जैसे महान स्तोत्र के आरम्भ का अद्वितीय माहौल जम जाता है।
ज्योतिष वगैरह की बात सामान्य रूप से मानों सभी ही समझ सकें ऐसी प्रतीति होती है । परन्तु उसमें भी अनुभवी गुरू की आवश्यकता पड़ती ही है । अतः अंततोगत्वा तो 'गुरू शरण' को श्रेष्ठ मानकर, उनकी आज्ञा के अनुसार ही आराधना करें ।
'मुहूर्त मुक्तावलि' जैसे ग्रंथों के अनुसार आसो से फागुन तक के महीने और वैशाख एवं श्रावण के महीने तथा द्वितीया, पंचमी, सप्तमी, दसमी, त्रयोदशी, पूर्णिमा जैसी तिथियाँ और रोहिणी, उत्तराषाढा, उत्तरा भाद्रपद, उत्तरा फाल्गुनी, ज्येष्ठा, आर्द्रा, स्वाति, जैसे नक्षत्र उत्तम हैं । तथा रवि, शुक्र, बुध, चंद्र, गुरुवार उत्तम हैं।
इस प्रकार कार्तिक, मार्गशीर्ष, महा, फागुन, वैशाख, श्रावण और अश्विन (आसो) सभी के मत में श्रेष्ठ महीने हैं और ज्येष्ठ तथा चैत्र सभी के ही मत में वयं-छोड़ने योग्य-महीने हैं ।
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