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________________ . भक्तामर स्तोत्र की आराधना कब करे ? कैसे करे ? - वर्तमान समय में पुस्तक सर्वत्र प्रसारित हो गये हैं । इस लिये भक्तामर कब प्रारम्भ करना और कब गिनना यह प्रश्न लोगों के लिये मानों अप्रस्तुत दीखाई देता है । परन्तु चाहे कितने पुस्तक हो, चाहे कितने मंत्र प्रसिद्ध हों, परन्तु मंत्र या स्तोत्र को जी चाहे तव शुरू नहीं ही किया जा सकता है। कई लोगों को मंत्र और स्तोत्र का महत्त्व सुनकर मंत्र या स्तोत्र गिनने की प्रवल इच्छा होती है और मन चाहे उस प्रकार से प्रारम्भ कर देते हैं । अतः मंत्र या स्तोत्र के प्रति मंत्र की गंभीरता और पूज्यता नहीं बनी रहती हैं । और जव विशेष कोई भी फल की प्राप्ति नहीं होती तब ढिंढोरा पिटते है कि, मैंने तो बहुत सारे मंत्र गिन लिये, सारे ही स्मरण गिन लिये, मुझे कोई लाभ नहीं हुआ, इस काल में कुछ भी फलता ही नहीं है । ऐसी बाते करके महान मंत्र-स्तोत्रों का गौरव कम कर देते हैं। भक्तामर जैसा स्तोत्र अत्यन्त ही आदरपूर्वक ग्रहण करना चाहिए । हमारे यहाँ जैसी महिमा संयमरूप दीक्षा की होती है. उपधान तप की माला इत्यादि की होती है, वैसी महिमा मंत्र दीक्षा और स्तोत्र दीक्षा की होनी चाहिए । अन्य परंपराओं में महोत्सवपूर्वक-विशिष्ट आयोजनपूर्वक ऐसे मंत्र और स्तोत्र ग्रहण किये जाते हैं। ‘मंत्रदीक्षा'-महोत्सव के आयोजनपूर्वक एवं महोत्सव के आयोजन के मध्य में होती है-वैसा अभी तो साधु भगवंतों के गणि पंन्यास पद प्रदान के समय ‘वर्धमान विद्या' एवं आचार्यपद प्रदान के समय 'सूरिमंत्र' देते हैं तब सुरक्षित रहा है । भक्तामर जैसे सातिशायी स्तोत्रों के सम्बन्ध में ऐसे विधान की आवश्यकता है । जब तक ऐसा विधान आयोजित नहीं किया जाय तब तक कुछ विधि तो आयोजित की जानी ही चाहिये । __ एक वात लक्ष्य में रखनी चाहिये कि मंत्र या स्तोत्र ये शब्द नहीं, एक विशिष्ट प्राण शक्ति है । केवल शब्द या स्तोत्र को प्राप्त करने से कुछ भी हो नहीं सकता । हमें महान प्राणशक्ति के संवाहक बनना चाहिये । इस हेतु सुयोग्य गुरू भगवंत की, महान साधक की आवश्यकता होती है । सामान्यतः जिसने जिस मंत्र या स्तोत्र को अपने श्वासोच्छवास की तरह सिद्ध किया हो, जिसे उस मंत्र पर अटल विश्वास हो ऐसे साधक गुरू के पास से ही स्तोत्र या मंत्र ग्रहण करना अधिक योग्य है | गुरू भी चारित्रबल, तपोवल एवं संकल्पवल वाले होने चाहिये । ऐसे गुरू को प्राप्त करने की हृदय में तीव्र लगन लगती है तब गुरू का योग मिल ही जाता है । हमारे महान प्रार्थना सूत्र जयवीयराय सूत्र में 'सुह गुरू जोगो' की प्रार्थना की गई है । इतना ही नहीं, परन्तु ऐसे सद्गुरू के वचन की सेवा जीवन के अंत तक, मोक्ष प्राप्त न करें तब तक करने की प्रार्थना भी करने में आई है । पूर्वकाल में आराधक आत्माएँ धैर्यवान होती थी, सद्गुरू की खोज में सालों बीताने पड़े तो भी बीताते थे । ऐसे सद्गुरू मंत्रो या स्तोत्रों को प्रदान करने, योग्यता परीक्षण करने, बरसों तक प्रतीक्षा भी करवाते थे । जव गुरू को शिष्य योग्य प्रतीत हो तब ही व मंत्र एवं स्तोत्रों को प्रदान करने का अनुग्रह करते थे । मुझे तो वह श्लोक परम मननीय दिखाई देता है : "ध्यानमूलं गुरोर्मूर्ति, पूजामूलं गुरोः पदम् । _ मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं, मोक्षमूलं गुरोःकृपा ॥" गुरूकृपा की अत्यंत महत्ता ही है, अतः आराधक को गुरू का अनुग्रह पाने हरदम जागृत रहना चाहिये । जिन में महान विनय-भक्ति-सेवा जैसे महान गुण होते हैं, हृदय में सरलता, मन में निष्ठा और आत्मा में पवित्रता होती है उन्हें कई वार सद्गुरू सामने से बुलाकर भी अनुग्रह के रूप में स्तोत्र-मंत्र देते हैं । लक्ष्य में रखने योग्य है कि जगत महान रहस्यों की परम्परा है । एक भी परमाणु के सम्पूर्ण पर्याय को जानने की हमारी क्षमता नहीं है । पुद्गल के स्थूल परिणामों को स्थूल रूप से भी जान सके उतनी लंबी हमारी जिंदगी नहीं है । अनंत शक्ति और अनंत रहस्यों के बीच हम निराधार रूप से भटक रहे हैं । ऐसी परिस्थिति में जो महान् शक्ति हमारा मार्गदर्शन कर सके वही शक्ति गुरु है । गुरू शब्द का अर्थ भी यही बतलाता है कि, 'गु' अर्थात् 'अंधकार' अर्थात् 'रू' प्रकाश इस अंधकार में जो प्रकाश फैलाये वह 'गुरू' । प्रकाश की परम प्यास, ज्ञान की प्राप्ति की अनन्य अभिलाषा गुरुतत्त्व का प्रकाश करती है | अतः वाह्य गुरू को पाकर अंतर के गुरू की उपेक्षा न करें और अभ्यंतर गुरुतत्त्व की जागृति हेतु बाह्य सद्गुरू उपासना अवश्य करें । साधकों को, चिंतकों को, आराधकों को यह अनुभव होता है कि जब किसी भी आराधना-साधना हेतु मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है तव उस का मार्गदर्शन किसी न किसी रूप में उपस्थित हो जाता है । एकलव्य ने प्राप्त की हुई विद्या-सिद्धि प्राचीनकाल का श्रेष्ठ उदाहरण है। २४० आराधना-दर्शनXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002588
Book TitleBhaktamara Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyashsuri
PublisherJain Dharm Fund Pedhi Bharuch
Publication Year1997
Total Pages436
LanguageSanskrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size50 MB
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