________________
मस्तक पर हो रहा है । एसे ध्यान को दृढ़ करना । पाट के साथ वर्ण बदलते जायेंगे पर अमृत वर्षण तो चालु ही रहेगा । यह ध्यान बहुत सुलभ है । इसको भी पदस्थ ध्यान कहा जा सकता है । वर्ण के पद ध्यान में महान शक्ति है । विश्व के गूढतम रहस्य वर्ण माला के-वर्णो के ध्यान से ही प्रगट होता है । रूपस्थ ध्यान से भी हमें अंत में रूपातीत ध्यान में जाना है और अनक्षर अरूप ऐसा आत्म-स्वरूप प्रकट करना है।
आराधकों को ध्यान करते ध्यान की अन्य पध्धतियों का स्फुरण हो जाता है । इस से भी अन्य अनेक ध्यान-प्रकार आराधकों को स्तोत्र पाठ करते करते प्रत्यक्ष हो जायेंगे।
भक्तामर के द्वारा ध्यान का आनंद पाने के इच्छुकों को खास ख्याल रखना चाहिये कि भक्तामर स्तोत्र के प्रत्येक शब्द के अर्थ, प्रत्येक पद के अर्थ और प्रत्येक श्लोक के अर्थ को वह भलि भांति समझ लें ।
जब तक अर्थ हृदयस्थ नहीं होते हैं तब तक आंतर चैतन्य प्रकट होना अत्यंत ही मुश्किल होता है । ध्यान एक आनंद की अनुभूति है इसलिये नीरसता से या विवशता से पाठ हो तो विशेष कोई लाभ नहीं होता है ।
कुछ लोग संस्कृत न समझने पर और पाठ में रसमयता बनी रहे इस हेतु से गुजराती-हिन्दी इत्यादि अपनी-अपनी भाषा में भाषांतरित हुए भक्तामर का पाठ करते हैं । जिस का अर्थ समझ में आयें उसमें रस आना तो स्वाभाविक है । अपनी अपनी भाषा में स्तोत्रों को बोलने पर रस तो आयेगा ही । परन्तु महापुरूषों ने जागृत किये हुए मंत्र संकल्प तो उसी संस्कृत भाषा का स्तोत्र बोला जाय तभी सिद्ध होंगे । रस उत्पन्न करने के लिये हमें हमारी पद्धति का उपयोग नहीं करना चाहिए पर जिस प्रकार से रस और प्रभाव उत्पन्न होता है उसी प्रकार से पाठ करें ।
मूल भाषा में उस स्तोत्र का पाठ करने से रचनाकार के महान संकल्प का लाभ तो मिलता ही है, परन्तु उस रचना के सर्जन के पश्चात् के जिन जिन पुरूषों ने उसका पाठ किया हो, साधना की हो, आराधना की हो उन सभी महान् आत्माओं के पवित्र मनवचन के परमाणुओं के आंदोलन और पवित्रता का भी लाभ मिलता है ।
हमारे शास्त्रकार तो भाषा-वर्गणा के पुद्गलों को लोकव्यापी और चिरकाल तक भी टिके रहने के सामर्थ्यवाले मानते हैं । ऐसे महान् वातावरण का लाभ गंवाना नहीं चाहिए। जो भी आराधक भक्तामर के प्रत्येक पद की पवित्रता का ख्याल करके पाठ करेगा उसे ये बातें बिना कहे भी समझ में आ जायेगी।
भक्तामर स्तोत्र आराधना की अद्भुत साधना, स्तोत्र जाप एवं ध्यान-इन तीनों ही का महान आलंबन है यह निर्विवाद बात है।
• भक्तामर स्तोत्र के अट्ठम तप जैन र्धम की, जैन शासन की महानता है । जैन शासन तप के लिये विषमकाल में भी प्रसिद्वि-प्राप्त है। शास्त्र में कहा गया है कि दुराध्य से दुराध्य चीज भी तप द्वारा सिद्ध होती है । हमारे यहाँ प्रत्येक आगमों को प्राप्त करने के लिये तप की अनिवार्यता मानी गई है । नवकार मंत्रादि सूत्रों के लिये भी उपधान तप का विधान है।
मुनि भगवंत भी आवश्यक सूत्र, दशवैकालिक सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, आचारांग सूत्र, आदि बहुत-से सूत्रों के लिये योगोदवहन रूप तप करते ही हैं । प्रायः किसी भी मंत्रसिद्धि, आराधना सिद्धि और जापसिद्धि के लिये तप अनिवार्य माना गया है। अहिंसा-संयम, सम्यक् तप में समाविष्ट हो ही जाते हैं । इस लिये अहिंसा, संयम के बाद ही तप का स्थान गिना गया है । एक
से सोचें तो अहिंसा यम है, संयम नियम है और तप आसन, प्रत्याहार धारणा और ध्यान स्वरूप है । इस प्रकार अहिंसा-संयमतप ये अष्टांग योग है । उसमें भी तप तो मंगल ही नहीं, परन्तु महा मंगल करनेवाला है | नूतन परिभाषाओं के अनुसार तो अहिंसा यह बाहर का Cable कॅबल है, संयम यह अंदर का तार Wire है, परंतु तप यह तो अंदर बहता Power है, विद्युत् प्रवाह है । ऐसे पावर के बिना कुछ प्रकाशित हो नहीं सकता है । इसलिये भक्तामर की साधना हेतु उसका तप करना उचित ही लगता है । अट्ठम तप का आराधन पू. गुरूदेव की निश्रा में भी अनेक बार हो चुका है । आराधना करनेवालों को परम आनंद हुआ है । यहाँ भी आराधक महानुभावों के लिये अट्ठम की विधि दी जाती है।
XXXXXXXXXXXXXXX XXXXXXXXXXXXXXXआराधना-दर्शन
आराधना-दर्शन
२३७
२३७)
Jain Education International 2010_04
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org