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बहुत से श्लोक ऐसे हैं कि अर्थ से पाठ करनेवाले को स्वाभाविक ध्यान में ले जाते हैं और अब जब ऐसे सुंदर चित्र तैयार हो गये हैं तब ध्यान में प्रवेश करनेवाले को अत्यन्त ही आसानी हो जायेगी ।
इस के अतिरिक्त भी यदि स्तोत्र जाप के साथ ही ध्यान चालु रखना हो तो भक्तामर की प्रत्येक गाथा भगवान के चरण में स्थापित करते जायँ और एक ही लय से भक्तामर का पाठ करते जाना ।
इस से भी आगे बढ़ना हो तो प्रभु के कंठ में एक माला की कल्पना करे, बीच में मेरू की कल्पना करे, दोनों बाजु २२-२२ कमलों की कल्पना करें। प्रत्येक कमल की कर्णिका में गाथा के प्रथम अक्षर का न्यास करते जायें और ४४ गाथा तक सारे ही अक्षर स्थापित हो जायेंगे बाद वही माला अपने कंठ में स्थापित हुई है ऐसा ध्यान कर परमात्मा की परम कृपा का-परम प्रमोद का-परम आनंद का अनुभव करते जायें । संपत्ति रूप, संस्कार रूप, सदाचार रूप, समाधिरूप लक्ष्मी हमारे पास आ रही है वैसी दृढ़तापूर्वक की भावना करना अंतमें प्रत्येक आत्म प्रदेश में अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत चारित्र और अनंत सुख रूप स्वभाव लक्ष्मी की स्थापना हो चुकी है ऐसी भावना में स्थिर रहकर, स्थिरता पूर्ण होने पर ध्यान पूर्ण करें ।
श्री भक्तामर के ध्यान के लिए पिंडस्थ-पदस्थ-रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यान आयोजित किया जा सकता है । पिंडस्थ ध्यान शरीर में पांच धारणा से होता है । इस ध्यान से शरीर में रहे पाँच तत्त्वों की शुद्धि होती है । उस ध्यान के बाद का ध्यान पदस्थ ध्यान है | भक्तामर स्तोत्र के पाठ करते समय पदस्थ ध्यान सहज भाव से हो जाता है । शास्त्रो में कहा भी है कि
"महामन्त्रे च मन्त्रे च, माला मन्त्रेऽथवा स्तुतौ ।
स्वप्नादि लब्ध मंत्रे वा, पदस्थं ध्यान मुच्यते ॥" महामंत्र का, मंत्रो का, माला मंत्र का अथवा स्तोत्र का एवं स्वप्न में प्राप्त हुआ मंत्रो का ध्यान “पदस्थ ध्यान कहलाता है।
भक्तामर का भी पदस्थ ध्यान हमें करना चाहिए। हमारे शास्त्रों के हिसाब से राजलोक चौदह (१४) है और श्री भक्तामरस्तोत्र के प्रत्येक पद में अक्षर भी चौदह (१४) है । इतना ही नहीं, गुण स्थानक भी चौदह ही है | अतः भक्तामर के प्रत्येक वर्णो की स्थापना एक एक राजलोक अथवा एक एक गुण स्थानक पर करके पदस्थ ध्यान करने का आनंद ओर ही आता है । चौदह राजलोक का आखिर का भाग "लोकाग्र" कहलाता है । यदि इस लोकाग्र भाग में हम सिद्धों का ध्यान करें, तो "रूपस्थ ध्यान" भी बन जायेगा । चौदह गुण-स्थानक की प्राप्ति के बाद की दशा का चिंतन करने लगेंगे, तो रूपातीत ध्यान भी हो जायेगा ।
• श्री भक्तामर स्तोत्र भी वर्णात्मक है। शास्त्रो में प्रत्येक वर्ण का एक सुंदर स्वरूप निश्चित्त किया गया है । हम यहाँ केवल "भ" वर्ण का स्वरूप क्या है ? वही देखने की कोशिश करेंगे । •भकार वर्ण दश क्रोड योजन ऊँचा है।
भकार वर्ण क्रोड योजन चौडा है । भकारने मोती के आभूषण धारण किये है । भकारने यज्ञोपवित धारण की है। भकार दिव्य आभूषणों से शोभित है । भकार की आठ भुजायें है.. जिस में शंख-चक्र-गदा-मुशल-कोदंड-शरासन-तोमर ग्रहण किये हुआ हैं । भकार का वाहन हंस है। भकार का स्वाद बेर के फल जैसा है । भकार की आवाज घन है। भकार की गंध चंपक के फूल जैसी है । भकार को वशीकरण प्रयोग एवं आकर्षण प्रयोग प्रिय है ।
भकार का देवता कुबेर है । • भकार का लिंग नपुंसक है ।
प्रारंभ में तो भकार की इस शक्ति का स्वरूप धारणा से दृढ बनाना पड़ता है। इस के बाद जब सभी वर्गों की अवधारणा हो जाती है, इस वर्णो का “पदस्थ ध्यान" भी बहुत आनंद-प्रद बनता है ।
यदि ऐसा ध्यान अधिक परिश्रम की अपेक्षा रखता हो, तो सरल रूप से भी ध्यान किया जा सकता है । सरलता से ध्यान करने के लिए भक्तामर के प्रत्येक वर्णो को मस्तक पर धारण किया है एसा चिंतन करें। बाद में उन्हीं वर्णो से अमृत का स्राव हमारे
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