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________________ • जप-ध्यान और स्तोत्र आराधना के सम्बन्ध में शास्त्र में कहा गया है कि :"जपश्रान्तो विशेद् ध्यानम्, ध्यानश्रान्तो विशेद् जपम् । द्वयश्रान्तः पठेत् स्तोत्रम्, इत्थं गुरूमिः स्मृतम् ॥" भक्तामर की आराधना के लिये भी जप, ध्यान एवं अंत में इस स्तोत्र का पाठ-इन तीनों साधना का ख्याल रखना चाहिये। इस साधना हेतु दो विकल्प सोचे जा सकते हैं : एक इस समग्र स्तोत्र का जाप, इसी स्तोत्र के भावार्थ से निष्पन्न ध्यान और अंत में इसी स्तोत्र का पठन । दूसरे विकल्प के रूप में भक्तामर की किसी एक गाथा और उस गाथा का कल्प के अनुसार जाप एवं ध्यान । आराध्य श्री आदिनाथ भगवान वीतराग भगवान को केन्द्र में समझें तो जप परमात्मा के नाम-निक्षेप की आराधना है। ध्यान स्थापना-निक्षेप की आराधना है । भक्तामर के आराध्य जाप हेतु दो जाप विशेष अनुकूल रहेंगे :प्रथम जाप: ___ॐ ह्रीं नमो अरिहंताणं, सिद्धाणं, सूरीणं, उवज्झायाणं, साहूणं मम ऋद्धिं, वृद्धिं, समीहितं कुरू कुरू स्वाहा ।" इस जाप को भक्तामर का सामान्य जाप माना जा सकेगा। इस जाप की सिद्धि हेतु उसका ३२०० जाप गिनने में आया है । विशेष प्रयोजन में विशेष साधना में यह जाप इतना गिने | नित्यस्मृति में यह जाप ३२ बार गिने । यह जाप भक्तामर की ११ तथा १२ गाथा के मंत्र रूप में दिया गया है। उसकी साधना-विधि में प्रातःकाल का समय, पचरंगी धोती का परिधान, मूंगे (परवाला) की माला और माला के समय खास अगर का धूप करने का विधान है । साधक यह भी ख्याल रखें । इस मंत्र को सर्वसिद्धिकर मंत्र समझा गया है । पू. गुरूदेव विक्रमसूरीश्वरजी म. साहेब ने सर्वप्रथम बार भक्तामर पूजन का संकलन किया है । उसमें भी इसी मंत्र का जाप प्रत्येक पूजा में १२ बार किया जाता है । भक्तामर का दूसरा जाप : "...ॐ नमो वृषभनाथाय, मृत्युञ्जयाय, सर्वजीवशरणाय, परम पुरुषाय, चतुर्वेदाननाय, अष्टादशदोषरहिताय, अजरामराय, सर्वज्ञाय, सर्वदर्शिने, सर्व देवाय, अष्ट महाप्रातिहार्य चतुस्त्रिंशदतिशयसहिताय, श्री समवसरणे द्वादशपर्षदवेष्टिताय, ग्रहनाग-भूत-यक्ष-राक्षसवशंकराय, सर्वशांतिकराय मम शिवं कुरू कुरू स्वाहा" यह भी महत्त्वपूर्ण जाप है। गुणाकार वृत्ति में यह मंत्र १ से ४ गाथा का पूरक मंत्र है । इस के अतिरिक्त भी विशेष जाप करना हो तो गुरूमुख से आदीश्वर प्रभु के प्राचीन मंत्र प्राप्त कर लेने चाहिये । श्री ऋषभविद्या के मंत्र को भी स्थान दिया जा सकता है । .श्री ऋषभविद्या मंत्र :- ॐ नमो जिणाणं, ॐ नमो ओहि जिणाणं, ॐ नमो परमोहि जिणाणं, ॐ नमो सव्वोहि जिणाणं, ॐ नमो अणंतोहि जिणाणं, ॐ नमो केवलि जिणाणं, ॐ नमो भगवओ अरहओ उसभ सामिस्स सिज्झउ मे भगवइ महइ महाविज्जा । ॐ नमो भगवओ उसभ सामिस्स आई तित्थगरस्स जस्सेयं जलं तं गच्छई चक्कं । "सब्बत्थ अपराजिअं आयाविणी ओहाविणी मोहणी, थंमणी, जंभणी हिली हिली किलि किलि चोराणं भंडाणं भोइयाणं अहीणं, दाढीणं, नहीणं, सिंगीणं, बेरीणं, जक्रवाणं, पिसायाणं मुह बंधणं करेमि ठः ठः स्वाहा ।" ध्यान हेतु तो अशोकवृक्ष, सिंहासन, चामर और तीन छत्रयुक्त चार प्रातिहार्यों से युक्त ऐसा ही परमात्मा का 'ध्यान' करना भक्तामर की आराधना के लिये उचित दीखता है। प्रथम एक एक प्रातिहार्य का ध्यान और फिर एक साथमें चारों प्रातिहार्य का ध्यान करना चाहिये । XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXआराधना-दर्शन आराधना-दर्शन २३५) २३५ ___JainEducation International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002588
Book TitleBhaktamara Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyashsuri
PublisherJain Dharm Fund Pedhi Bharuch
Publication Year1997
Total Pages436
LanguageSanskrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size50 MB
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