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________________ पू. गुरूदेव की भक्तामर स्तोत्र की आराधना के द्वारा समस्त श्री जैन संघ में भक्तामर की आराधना में अपूर्व गति आई है । अनेक भक्तामर मंडल अस्तित्व में आये हैं। अनेक जिनालयों में नित्य प्रातःकाल नियमपूर्वक भक्तामर का पाठ होता है। इन सभी आराधनाओं के पीछे प्रत्येक व्यक्ति के कारण भिन्न भिन्न हो सकते हैं, किन्तु पू. गुरूदेव की आराधना का उद्देश जिनभक्ति ही था और वही आदर्श प्रयोजन भक्तामर स्तोत्र में ही दर्शाया गया है। 'त्वत् संस्तवेन भव संतति-सन्निव पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीर-भाजा । आकांतलोक मलि-नील-मशेष- माशु सूर्याशु-भिन्नमिव शार्बर-मन्धकारम् ॥' आत्मा को अनेक जन्मों में चिपके हुए कर्मों और कुसंस्कारों को दूर करने में भक्तामर का पाठ अर्थात् प्रभु की स्तवना अमोघ उपाय है। उसमें भी ग्रंथकारने 'अशेषम् अंधकारम्' 'आशु-नाशम्' ये दो प्रयोग अत्यन्त ही मर्मपूर्ण ढंग से किये हैं जो लोग नित्य ऐसे स्तोत्र का पाठ करते हैं, उन की समझ में आता है कि अशेष अर्थात् समस्त अंधकार को प्रकाश में परिवर्तित कर देने की इस स्तोत्र की कितनी बड़ी ताकत है! कितना शीघ्र परिवर्तन होता है !! भव की परंपरा में बंधे हुए कर्म अंधकार है। ज्ञान को रोकनेवाला प्रकाश को आवरित करनेवाला ज्ञानावरणीय कर्म भी अंधकार है। 'मैं और मेरे' के तीव्र संस्कार भी अंधकार है और निर्विवेकिता, निष्फलता, निराशा, निर्धनता भी अपेक्षा से अंधकार है । ये सारे अंधकार को क्षणभर में नष्ट कर देनेवाली भक्तामर की आराधना का अद्भुत सामर्थ्य है । श्री भक्तामर स्तोत्र की आराधना के सम्बन्ध में शास्त्र में अनेक मार्गदर्शन हैं। टीकाकारों ने कल्पकारों ने ऐसे महान स्तोत्र की आराधनार्थ अनेक सूचनाऐं दी हैं। आराधना के लिये अनिवार्य है- आराध्य की आस्था । • आराध्य की आस्था आस्था और श्रद्धा आराधना का अनिवार्य अंग है । वह बात याद है न, कि वे भक्त रामनाम से पत्थर तिराते थे । एक बार स्वयं राम को इस बात का आश्चर्य हुआ । उन्हें भी उत्सुकता हुई । स्वयं को ही परीक्षा करने की इच्छा हुई | अतः रामने स्वयं पत्थर को पानी में डाला । कहा जाता है कि वह पत्थर डूब गया । राम के श्रद्वालु भक्तों ने राम से कहा, आप राम हैं, आप का नाम राम है, पर आप को रामनाम का कौतुक है-उत्सुकता है। रामनाम की श्रद्धा नहीं है। रामनाम की आस्था नहीं है... रामनाम की आस्था हमारे भीतर है, पत्थर राम से नहीं, राम की आस्था से तिरते हैं। आराध्य से नहीं, आराध्य की आस्था से तिरते है । आराध्य आदिनाथ की अखंड आस्था, भक्तामर की आराधना का रहस्य है। भक्तामर के पाठ करनेवाले में वे 'स्वयं आत्मा है' ऐसी प्रतीति और स्वयं को परमात्मा बनना ही है ऐसा संकल्प, ऐसा मनोरथ, यदि न हो तो भक्तामर की आराधना से पाने का क्या होगा ? 'मैं आत्मा हूँ' - इस प्रतीति से जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, बंध की श्रद्धा दृढ़ होती है और 'मुझे परमात्मा बनना है ।' ऐसे संकल्प से संवर- निर्जरा और मोक्ष के प्रति प्रशस्तराग रूप प्रबल अभिलाष रूप श्रद्धा प्रगाढ होती है । इस प्रकार नवतत्त्व का नव-रंग भी आत्मा में जमे तब ही आराधना आनंदमयी बन सकती है । संशय कौतुक - परीक्षा की भावना से कोई भी आराधना नहीं की जा सकती है और ऐसी आराधना यदि की जाय तो वह असफल ही रहती है, फलवती नहीं होती है । आस्था-श्रद्धा ही आराधना का आधार स्तम्भ है। इसी लिये तो इस स्तोत्र के महान् कर्त्ताने स्तोत्र में ही कहा है कि 'सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान् मुनीश ! कर्तुं स्तवं विगत शक्ति रपि प्रवृत्तः । प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रं नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥ भावावेश की बाढ़ के साथ बहती श्रद्धा ही भक्ति है। श्रद्धा जब कर्तव्य में आचार में प्रकट होती है, मन की प्रसन्नता के साथ तन की स्फूर्ति के साथ, वचन की दृढ़ता एवं निश्चलता के साथ अभिव्यक्त होती है, तब भागवती भक्ति का मंगल स्वरूप 7 दृश्यमान होता है । जिस के हृदय में भक्ति का ज्वार प्रकट हुआ उसमें तो श्रद्धा मानों शतमुखी होकर बोलती हो ऐसा प्रतीत होता है । भक्तिवान की श्रद्धा केवल शांतदेवी बनकर बिराजमान नहीं रहती है । भक्तिरूप से व्यक्त होनेवाली श्रद्वादेवी तो सहस्र आराधना -दर्शन XXXXXX Jain Education International 2010_04* For Private & Personal Use Only २३१ www.jainelibrary.org
SR No.002588
Book TitleBhaktamara Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyashsuri
PublisherJain Dharm Fund Pedhi Bharuch
Publication Year1997
Total Pages436
LanguageSanskrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size50 MB
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