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भुजावाली महादेवी बनती है । इसीलिये शास्त्रकार कहते हैं-तेरी स्तवना के लिये, तेरी आराधना के लिये मुझे भक्ति को छोड़कर अन्य किसी शक्ति की अपेक्षा नहीं है-'विगतशक्ति रपि प्रवृत्तः।' यह जयघोष; 'मैं क्या करूं?' 'मेरा कोई नहीं' ऐसा रोना नहीं है । 'मुझ में कुछ नहीं है' 'अभी मुझ से यह सधेगा नहीं' 'उन सब की बात अलग है, मेरा काम नहीं' 'पूर्व के काल के लोगों में शक्ति थी, आज तो काल ही खराब आया है, आराधना कैसे कर सकते हैं ?' ऐसी कोई वहानेबाज़ी भक्तामर का यह श्लोक पढ़नेवाला और समझनेवाला तो कर ही नहीं सकता है ।
आस्था की देदीप्यमान ज्योति का दर्शन तो उन्होंने (भक्तामरकारने) दिये हुए दृष्टांत में होता है । वह हरिनी ! निर्दोष-निर्लेपनिराधार हरिनी !! परन्तु कैसा चमत्कार करती है वह !!! भरती है छलांग वह शेर के सामने । जंगल में जाकर ऐसा दृश्य देखने का जिसे अवसर मिले वह तो धन्य हो जायँ । परन्तु मानतुंगसूरि महाराज की यह ललकार भी कोई कम उतरनेवाली नहीं हैं । आप इस श्लोक के मर्म का चिन्तन करेंगे तो हृदय झूम उठेगा । आराधना करनेवाला किस से डरता है ? मौत से? अरे मूर्ख ! मौत से तो जंगल की एक हिरनी भी नहीं डरती । “ओ आराधक ! समझ थोड़ा समझ' । आत्मविश्वास शून्य अस्तित्व यह जड़ता काअचैतन्य का आविष्कार है । यदि आराधक आस्थावान हो तो मौत से डरता ही नहीं। और जिसे मौत का भय नहीं है उसे किस का भय है ? जीवन का लालची या आराधनाएँ छोड़कर भी जीने के लिये ही तड़पनेवाला मनुष्य तो इस भूमि के लिये वोझ रूप है । वाकी मृत्यु के भय को जीत गया हुआ एक भी मर्द हजारों को भारी पड़ता है । मृत्यु के भय को जीतनेवाला कितना भी दुष्कर कार्य कर सकता है । मानतुंगसूरिजी महाराज ने भक्तामर स्तोत्र के दूसरे ही शब्द के रूप में 'अमर' शब्द का प्रयोग किया है । परन्तु अमरता का रहस्य इस पांचवें श्लोक में दिखाया है । मृत्यु के भय को मार डाले वह ही अमर । मृत्यु के भय से परे गये हुए को शेष छ भय कुछ ही नहीं कर सकते । हमे समझना है कि आराधक आस्थावान होता है अर्थात् अभय होता हैं, निर्भय होता है।
जीवन में आस्था भक्ति के रूप में और भक्ति अभय के रूप में प्रगट होती है तब आराधना अमृतमयी वन जाती है । ग्रीस का सुकरात हो या राजस्थान की भक्त रमणी मीरा हो, ज़हर के प्याले को घुट घुट पी जाने की अनंत अभयमयताने उनकी आराधना को अमृतमयी बनाई है । अजयपाल की ललकार का आचार्य रामचन्द्र को कौन-सा भय लगा था ? और भोजराजा का फरमान मानतुंगसूरि महाराज को कहाँ प्रकम्पित कर पाया था ? आराधक में रही हुई आस्था अभयरूप में प्रकट होनी चाहिए। जिसे कोई भय नहीं होता, उसे किसी की परवाह भी नहीं होती। जिसे किसी की परवाह नहीं होती उसे किसी का ममत्व भी नहीं होता। इस प्रकार आस्था का विकास भक्ति, अभय, लापरवाही और अ-ममत्त्व के रूप में प्रकट होता है । अंततोगत्वा यही अ-भय, अ-ममत्व, अन्अहं तक पहुँचाता है । अन्+अहं ही अनंतमयी, सदा ऊर्ध्वस्थित "र" कार की ऊर्ध्वमात्रा का “अहं' पर अवतरण कराता है और अहं में अनादिकाल से उलझी हुई आत्मा अनंतकाल तक अहँ बन जाती है। आराधक अब अवश्य समझेगा कि आराधना में आस्था क्रमिक रूप से कैसी कैसी सिद्धियाँ प्राप्त कर सकती हैं । भक्तामर के आराधक को अनंतसिद्धि के वीजभूत आस्था की अखंडता को सम्हाले रखनी है । ऐसी आस्था से भक्तामर की आराधना होना आवश्यक है।
श्री भक्तामर-एक मान्य क्रम
श्री भक्तामर स्तोत्र की गणना हमारे यहाँ विचारवन्त पुरूषोंने नवस्मरण में की है । सामान्यरूप से पंचप्रतिक्रमण के अध्ययन के वाद नवस्मरण का अध्ययन होता है । अतः भक्तामर के आराधक को पंच प्रतिक्रमण के सूत्रों का परिचय, अर्थ, भावार्थ को आत्मसात् करना ही चाहिए ।
__ नवस्मरण के क्रम को भी लक्ष्य में रखें तो भक्तामर का क्रम ७ वाँ आता है । नवकार, उवसग्गहरं, संतिकरं, नमिऊण, तिजयपहुत्त, अजितशांति, भक्तामर, कल्याणमंदिर और बृहत्शांति-इस प्रकार नवस्मरण गिने जाते हैं । भाषा की दृष्टि से पृथक्करण करें तो ध्यान मे आयेगा कि संस्कृतभाषा के स्मरणो में भक्तामर स्तोत्र का स्थान प्रथम है । उस के पूर्व के छह स्मरण अर्धमागधी या प्राकृतभाषा में हैं | इस प्रकार भक्तामर का क्रम-प्राप्त अध्ययन करके आगे का अध्ययन करना आराधक के लिये आवश्यक है | कदाचित् आगे के सारे ही सूत्र कंठस्थ न हुए हो, या-किये नहीं जा सके हो; या कंठस्थ करने के लिये समय निकाला न गया हो तो भी उन प्रतिक्रमण तथा स्मरणों की ओर आदर रखकर सामान्य से उन के भावार्थों को हृदयगत करने चाहिये । इस प्रकार एक संकेत निकाला जा सकता है कि भक्तामर स्तोत्र की आराधना करनेवाले को प्रति वर्ष पंच प्रतिक्रमण तो विधिपूर्वक करने चाहिये ! पंच प्रतिक्रमण की आराधना करनेवाला चैत्यवंदन एवं सामायिक की आराधना तो सहज रूप से करनेवाला होता ही है । इसलिये भक्तामर का दैनिक स्मरण, उसकी आराधना, चैत्यवंदन, प्रभुपूजा, गुरुवन्दन और प्रतिक्रमण करने की अपेक्षा रखता है । ऐसे मान्य क्रम से आराधना करते रहे तो आराधना का मूल्य अनेकगुना हो सकता है । इस प्रकार भक्तामर की आराधना केवल एक पाटक्रिया नहीं, परन्तु जैनजीवन का अमृतमय आस्वाद प्राप्त करने की क्रिया है ।
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आराधना-दर्शन XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
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