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।। ॐ पार्श्वनाथाय ही ।।
|| ॐ पद्मावत्यै ही ॥
|| ॐ ऐं नमः ॥ || श्री आदिनाथाय नमः ।।
आराधना-दर्शन
प्रातःकाल का परमानंदी समय भक्तामर आराधना के लिये उत्तम समय है । ब्राह्ममुहूर्त आत्मा से परमात्मा हेतु मिलन का समय है । ऐसे समय को जो साधता है वह अवश्य सज्जन बन सकता है... सद्गृहस्थ बन सकता है... साधु बन सकता है । ऐसा तो कहीं देखने में आया नहीं है कि जगत के किसी भी धर्म के संत-महंत-ओलिया फकीर-पादरी-गोंसाई या गुरू सूर्योदय के बाद उठते हों ! प्रत्येक धर्मने प्रातःकाल की पावनता की प्रशंसा प्रसारित की है । केवल धर्म नहीं, विज्ञान ने भी प्रातःकाल की विशेषता के विलक्षण वर्णन किये हैं।
प्रातःकाल की बेला में मस्तिष्क की ग्रंथियों से अमृत के समान रस झरता है और उससे पूरा दिन ताज़गी में व्यतीत होता है । यह सत्य अव प्रयोगशाला में सिद्ध हो चुका है । महानगरों के निश्चित स्थानों में तो बहुत बड़ा मानव समुदाय प्रभात में जी खोलकर दौड़ता, योगासन करता, हवाखोरी करता दिखाई देता है । प्रातःकाल की आराधनाओं के लिये तो जितना लिखा जाय उतना कम है। हम तो हमारी संसारी मातुश्री के मुँह से बचपन से ही वोलना सीखे हैं कि"रात जल्दी जो सोये, जल्दी ऊटे वीर ।
बल, बुद्धि, धन अति बढ़े, सुख में रहे शरीर ॥" विद्यालय में अंग्रेजी में भी यही पढ़ाया गया"Early to bed and early to rise;
That is the way to be healthy, wealthy and wise." हम तो मानते हैं कि प्रातःकाल की उपेक्षा अर्थात् जीवन के आनंद की उपेक्षा, जीवन की उपेक्षा ही क्यों? अपने हाथों ही धीमी आत्महत्या ! इतना अंगुलि निर्देश इस लिये किया है कि आराधना के साथ 'त्रिसंध्यं' अर्थात् प्रातः शाम की संध्याएँ जुड़ी हुई हैं, परन्तु उषःकाल की उत्तमता तो निराली ही है । प्रातःकाल की इस आराधना करने के समय की'अमृत-बेला' की, उपेक्षा किसी भी मनुष्य को करने योग्य नहीं है । गौर करें कि जैसे आप के हाथ में घड़ियाल है वैसे प्रकृति की भी एक घड़ियाल ही हैं । प्रकृति की घड़ियाल का प्राणवान समय है प्रातःकाल । प्रत्येक मनुष्य इस समय पर अपनी अपनी शक्ति, सत्त्व एवं सामर्थ्यानुसार आराधना करता है । परन्तु जिन्हें भक्तामर की आराधना करनी हो, जिन्हें भक्तामर स्तोत्र का पाठ नियमित करना हो, उन्हें भी चाहिये कि वे इस समय का आनन्द लूंट ले ।
हम वि.सं. २०२५ में केसरवाड़ी, मद्रास में थे पूज्य गुरुदेव को जिनभक्ति की अपूर्व विरासत मिली थी । केसरवाड़ी शांत एवं रम्य आराधना क्षेत्र है । उस समय वहाँ उपधान चल रहे थे । पर्याप्त समय था । पूज्य गुरुदेव मुझे कहते, 'राजा, अन्य आराधना तो जितनी सम्भव हो उतनी करें, परन्तु १०८ स्तुति से प्रभु की उत्कृष्ट स्तवना होती है | ऐसा जानने के बाद प्राचीन भाववाही स्तोत्रों से प्रभु की प्रार्थना करने का भाव उभरता ही रहता है ।' और ऐसे भक्ति के उल्लास से पूज्य गुरुदेव का चयन भक्तामर स्तोत्र पर उतरा । बस, फिर तो यह समझ में नहीं आया कि पू. गुरूदेवने भक्तामर पकड़ा या भक्तामर ने पू. गुरूदेव को पकड़े। आज इस वात (घटना) को बने बरसों बीत गये हैं, फिर भी हमारा एक भी दिन ऐसा नहीं गया कि प्रातःकाल में भक्तामर स्तोत्र से प्रभु की स्तवना हुई न हो । पूज्य गुरुदेव का भी यह आराधना व्रत अंत समय तक अखंड ही रहा था । जीवन के अंतिम दिन का आरम्भ भी भक्तामार की स्तुति के द्वारा ही हुआ था । आज तो यह सार्थक रूप से कहा गया, गया है कि
'भक्तामर की भव्य प्रभाएँ पू. गुरुदेव
फैलायी हैं जग में सारे;
पू. गुरुदेव श्री विक्रमसूरि म.सा.नी ऐसे गुरूवर नयनों के तारे,
श्री विक्रमसूरि म.सा.नी चरण पादुका विक्रमसूरीश्वर प्राणों से प्यारे ॥'
चरण पादुका
(२३०
आराधना-दर्शनXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
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