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________________ "जिज्ञासा एवं समाधान" रहस्य-दर्शन में आगे बताया गया है कि नवकार सूत्र हमारे यहाँ नवकार मंत्र रुप मानने मे आया है । अपने आगम सूत्रों में चौदह-पूर्व महान शास्त्र ग्रंथ है, उसमे विद्या प्रवाद नाम का एक पूर्व है । इस पूर्व में अनेक विद्याओं एवं मंत्रों की उपलब्धता है; ऐसा माना गया है । आगम में कितने ही प्रभाविक पाठ होते हैं इसीलिये अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय नहीं करना चाहिये । इन चमत्कारिक पाठों के प्रभाव से आने-जाने वाले देवों की गति भी रुक जाती है। वैसे देवों की गति को नियंत्रण करने वाले सूत्र की बहुलता भी जानने में आती है। उट्ठाण सूत्र एवं समुद्वाण सूत्र के पाठ के बारे मे तो ऐसा भी कहने में आया है, कि इन सूत्र के पाठ करने मात्र से पूरा नगर हिल उठा था... अतः ऐसे मंत्रों का होना जैनागमों में कोई नई बात नहीं है । जैनागम ही मंत्रमय है, और श्री नवकार मंत्र जैसे महामंत्र ने भी आगम जैसा गौरव पूर्ण स्थान ग्रहण किया है। अब हमें बताये कि कर्मवाद एवं मंत्र सिद्धांत का मेल कैसा है ? जैन धर्म में कर्म की मान्यता है... तथा कर्मो को भी बलवान माना गया है । परन्तु एकान्त से ऐसा मान लेना कि जो कर्म में होगा वही होगा, अथवा कर्म के उदय को भोगना ही पड़ेगा, तो यह जैन सिद्धांत नहीं है। संक्षिप्त में जैन धर्म अनेकान्ती है... कर्मवादी नहीं है । शास्त्रों मे स्पष्ट उल्लेख हैं कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव इन पाँचो से ही कर्म का बंध एवं कर्मो के उदयादि का प्रर्वतन होता है । कितने ही लोग यह भी कहते हैं कि कर्म अच्छे हों तो ही अच्छी बुद्धि आती है, परन्तु ऐसा एकान्त नहीं है । इस के लिए पंच समवायी कारण का ज्ञान परम आवश्यक है। साथ ही पंच समवायी कारणों में तो स्पष्ट कहा गया है कि " कहीं कर्म बलवान है तो कहीं आत्मा का पुरुषार्थ बलवान है"... इसीलिए तो महापुरुष कहते हैं कि जब आत्मा स्वयं के पुरुषार्थ से क्षपक श्रेणी में चढ़ जाती है तब निकाचित कर्मो का भी क्षय हो जाता है । अतः पुरुषार्थ भी एक प्रबल कारण है। मंत्र भी कर्म के उदय से दूर होने के लिये किया गया पुरुषार्थ है । दूसरे सब पुरुषार्थो से कई बार मंत्र पुरुषार्थ श्रेष्ठ साबित होता है । अतः कर्म के आये हुए उदय पुरुषार्थ से निष्फल भी होते हैं... निष्क्रीय हो जाते हैं । इसी कारण से जैन शास्त्रों मे भी जगह-जगह पर ऐसी मांत्रिक शक्तियों का परिचय एवं उनकी प्रयोग की विधि बताई गई है। पुज्य मुनिसुंदरसूरिजी म.सा. ने महान सूरिमंत्र को तीर्थ स्वरुप एवं साक्षात् तीर्थंकर रूप कहा है। सुरिमंत्र की आराधना का फल मोक्ष प्राप्ति भी बताया है... अतः मंत्रों की साधना से प्राप्य फल जिन शासन को मान्य है, ऐसे मंत्र फलों का नीचे मुजब वर्णन किया गया है । (9) मन समाधि का संरक्षण... (२) चित्त प्रसन्नता की प्राप्ति... चित्त प्रसन्नता एवं मन समाधि द्वारा मोक्ष की प्राप्ति... (3) (४) मंत्र द्वारा अधिष्ठायकों का साक्षात् सानिध्य... (५) मंत्र द्वारा अधिष्ठायकों से परोक्ष सहायता... (६) मंत्र के अधिष्ठायक देवों द्वारा शासन के एवं स्वयं के समुदाय के उत्तराधिकारी के चयन का महत्त्वपूर्ण निर्णय... (७) मंत्र के अधिष्ठायक देवों द्वारा आगम के जटिल प्रश्नों का निराकरण तथा शास्त्रों का संरक्षण.... (८) मंत्र साधना द्वारा माँ सरस्वती की एवं श्रुत देवता जैसे देव देवीयों की सहायता एवं उस सहायता द्वारा वाद-विजय, अनेक ग्रंथों की रचना, तथा राजा को प्रतिबोध और उस प्रतिबोध के माध्यम से शासन प्रभावना... (९) मंत्रों की साधना के द्वारा अन्य मंत्र वादियों द्वारा किये गये प्रयोगों की विफलता..... (१०) मंत्र साधना द्वारा देवों का प्रत्यक्षीकरण और उन्हीं देवों को सम्यक्त्व का प्रदान तथा उन देवों को जिन शासन के अनुरागी बनाने का उपक्रम... XXX रहस्य-दर्शन Jain Education International 2010_04 xxxx For Private & Personal Use Only २२१ www.jainelibrary.org
SR No.002588
Book TitleBhaktamara Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyashsuri
PublisherJain Dharm Fund Pedhi Bharuch
Publication Year1997
Total Pages436
LanguageSanskrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size50 MB
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