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"तेजो यथा जात्यमणौ महत्वं नैवं तु काचशकलेषु रूचाकुलेषु' इसी संदर्भ में पू. मेघविजयजी उपाध्यायने इन दो पंक्तिओं के स्थान पर नीचे मुजब दो पंक्तियाँ लिखी है।
"तेजो मणौ समुपयाति यथा महत्त्वं, नैवं तथा काच शकलेषु रूचाकरेषु'
इन पृथक्-पृथक् पंक्तिओं को देखने से ऐसा आभास होता है कि मूल पाठ में थोडा भी शब्दों एवं पदों का फेरफार या मूल पाठ से शाब्दिक छेड़खानी करते जायेंगे तो इन फेरफार की कोई सीमा नहीं रहेगी । इस हेतु यह बात ध्यान रखने योग्य है कि "सिद्धस्य गति चिंतनीया"-जैसा पूर्व परंपरा से चला आ रहा है ऐसे ही पाठ का हमें अनुसरण करना चाहिए।
जो पाठ सिद्ध है उनको ही, प्रमाण एवं व्याकरण से सिद्ध करना चाहिए परंतु पाठ बदलने की बेवजह कोशिष नहीं करनी चाहिए।
"दावानलं ज्वलित मुज्जवलमुत्स्फुलिंगम्"
अभी भी काफी पुस्तकों में मात्र “फुलिंगम्' ऐसा पाठ देखने में आता है । ऐसा पाठ किन्ही प्राचीन प्रतिओं में से श्री सिद्धचंद्र उपाध्याय के समक्ष आया होगा । इसी लिए उन्होंने अपनी टीका में लिखा है कि :
“यद्यप्यत्र फुलिंग इति पाठः प्रामादिक एव प्रतिभाति सकारादित्वेन फुलिंगशब्दस्य नामकोषादै प्रतीतत्वात् । तथापि महाकवि प्रयुक्त प्रयोगत्वात अस्य स्तोत्रस्य मंत्राक्षरमयत्वाच्च पठयमान (फलिंग एव पाठः प्रामाणिक इति पश्यामः । क्वचित तु स्फुलिंगम् इति दंत्यसकार संयुक्तोऽपि पाठो दृश्यते । तदंगीकारे तु न चाशंका न चोत्तरम् इति अवसेयं" ।।
वैसे उनके मतानुसार “फुलिंग" यह शब्द व्याकरण एवं कोष से सिद्ध नहीं है। फिर भी चिंतामणि मंत्र जैसे मंत्र में इस शब्द की उपलब्धता होने से कदाचित् स्तोत्रकारने इस शब्द का प्रयोग किया होगा । ऐसी शंका करने योग्य नहीं है, क्योंकि इनके पूर्व की तीन टीकाओं में भी “स्फुलिंग" शब्द का ही उल्लेख मिलता है | मंत्राक्षर होने से ‘‘फुलिंग" शब्द ही होगा, इसलिये शायद पू. मानतुंगसूरीश्वरजी महाराजने “फुलिंग' शब्द का ही प्रयोग किया होगा, ऐसी शंका करने की आवश्यकता नहीं है । अतः "स्फुलिंग' शब्द ही स्वीकारने योग्य है । जरा गौर करके “फुलिंग" उच्चारण करने वालों को अपनी भूल को सुधारना चाहिए । बस ! पाठांतरों की बात यहाँ पूर्ण होती है । इति ।
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