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________________ गाथा पांचवी (५) की तीसरी पंक्ति का पाठ है - "प्रीत्यात्म वीर्य मविचार्य मृगो मृगेन्द्र" इस पंक्ति के स्थान पर "प्रीत्यात्म वीर्य मविचार्य मृगी मृगेन्द्र" यह पंक्ति भी प्रचलित हुई है । श्री भक्तामर स्तोत्र के प्रसिद्ध टीकाकार पू. गुणाकरसूरीजी महाराज, पू. कनककुशलगणि, पू. मेघविजयजी उपाध्याय, पू. सब महा-पुरूषों के समक्ष उपरोक्त पाठ की कभी चर्चा नहीं चली... यह पाठ मात्र दिगम्बर परंपरा में देखने में आया है... यहाँ पर “मृगी" का पाठ देने वालों का आशय ‘ऐसा हो सकता है कि मृग (हिरन) को अपने बच्चे से जितना प्यार होता है, उससे कहीं अधिक प्यार मृगली (हिरनी) को होता है । और इसी लिये ही मृगली (हिरनी) अपने बचाव के लिए सिंह के सामने छलांग मारती है । परंतु, ऐसे ही अर्थ का आग्रह रखने वाले से कोई पूछे की मृगली (हिरनी) हाजिर थी तो क्या मृग (हिरन) हाजिर नहीं था ? मृग हाजिर हो और मृगली अपने बचाव में छलांग मारे तो क्या मृग खड़ा खड़ा देखता रहेगा? ऐसा कभी बनता नहीं... मृग (हिरन) पुरूष है... पहले तो वह छलांग मारेगा, यह स्वाभाविक है । इस लिए “मृग' शब्द का अर्थ “मृग' एवं "मृगली" दोनो समझना हो तो समझा जा सकता है । मृग शब्द पुलिंग होने से सामान्य तथा समस्त जाती का वाचक है । अस्तु इन प्रमाणों के आधार पर पाठक को मूल पाठ में कोई परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं है । ठीक इसी तरह छहर्वी गाथा की चौथी पंक्ति का पाठ है । "तच्चारू चूत कलिकानिकरैक हेतुः ।।" इस के स्थान पर कईयों ने "तच्चारू चाम्र कलिकानिकरैक हेतः ।।" ऐसा पाठ भी किया है । उपरोक्त शब्दों का परिवर्तन कोइ विकृत मानसिकता से ग्रस्त व्यक्ति ने किया है, ऐसा प्रतीत होता है । कहने का तात्पर्य है कि यह कार्य किसी समझदार व्यक्ति का नहीं है । उस व्यक्तिने इन शब्दों के फेरफार का कारण ही किसी स्थान पर दिया है, जो यहाँ पर लिखने योग्य नहीं है । वैसे तो “आम्र” और “चूत" दोनों का अर्थ आम्र वृक्ष (आम का पैड ही होता है) परंतु ऐसा पाठ भेद नहीं करना चाहिए । “चाम्रकलिका” में रहा हुआ "च" अव्यय निरर्थक बनता है | "चकार" के प्रास को छोड "चाम्र" जैसे क्लिष्ट उच्चारण में जाने से कोई फायदा नहीं है। दक्षिण भारत में अभी भी “चारू चूत' का ही उच्चारण किया जाता है । ऐसा जानने में आया है । ठीक इसी प्रकार गाथा आठवीं की दूसरी पंक्ति का पाठ है । "मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात्" इस के स्थान पर "प्रसादात्' पाठ भी पढने में आया है। उपरोक्त चार टीकाओं में से एक भी टीका में यह पाठ स्वीकार करने में नहीं आया है । परंतु हिन्दी सचित्र भक्तामर रहस्य के संपादक श्री रतनलालजीने “प्रसादात्" ये शब्द पाठांतर है, ऐसा उल्लेख किया है, तथा मद्रास के A.M. Jain College द्वारा प्रकाशित एवं प्रोफेसर ए. रामदास द्वारा संपादित पुस्तिका में “तव प्रसादात्" शब्द ही मूल श्लोक में लिया है । पर प्रोफेसरने अंग्रेजी में भाषांतर करते वक्त "प्रभावात्' शब्द का ही उपयोग किया है । वैसे अगर देखा जाए तो यह बात बहोत छोटी लगती है । परंतु जिनेश्वर भगवान का प्रभाव यह जैन तत्त्वज्ञान है श्रमण संस्कृति है, एवं जिनेश्वर का प्रसाद मानना यह वैदिक संस्कृति है । ईश्वर कर्तृत्व संस्कृति है । इस लिए "प्रभावात्" पाठ का ही आदर करना । इसी तरह गाथा बीसी की तीसरी पंक्ति में "तेजः स्फुरन् मणिषु याति यथा महत्त्वं"-ऐसा पाठ है इस स्थान पर किसीने "म कार" के प्रास का उपयोग कर निम्न पाठ किया है । "तेजः महामणिषु याति यथा महत्त्वं" यह पाठ भी आदरणीय नहीं है। महा मांगलिक स्तोत्र में “स्फुरन्” पाठ का “स्फु” चिंतामणि मंत्र का ही प्रतिनिधि है; ऐसा प्रतीत होता है इसी लिए “महामणि" जैसा पाठ स्वीकार करना नहीं चाहिए। ___ यहाँ पर पू. गुणाकारसूरीश्वरजीने अपनी टीका में एक अद्भुत बात का जिक्र किया है । उन्हों ने “तेजः स्फुरन् मणिषु" इन दो पदों में वचनों का दोष आते हुए भी, उसे दोष न मानकर उसे वचन व्यभिचार रूप अलंकार माना है । किसी अन्य कविने इन दो पंक्तिओं की अलग व्याख्या करते हुए कहा है कि K K रहस्य-दर्शन २१९) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002588
Book TitleBhaktamara Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyashsuri
PublisherJain Dharm Fund Pedhi Bharuch
Publication Year1997
Total Pages436
LanguageSanskrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size50 MB
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