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________________ इस गाथा के मंत्रों के विषय में आचार्य श्री गुणाकरसूरीश्वरजी के निम्न पंक्तियों में स्पष्ट है कि"एषु वृत्तेषु वक्ष्यमाणा तत् तत् भीहर वृत्तवर्णाः एव मंत्रा पुनः पुनः स्मर्तव्याः अतो न अपर मंत्र निवेदनम् " उपरोक्त उल्लेख से यह स्पष्ट होता हैं कि गाथा ३३ से ४२ तक की गाथाओं में अनुक्रम से दिखायें गये (१) हाथी के भय को दूर करने वाले (२) सिंह के भय को दूर करने वाले (३) अग्नि के भय को दूर करने वाले (४) सर्प के भय को दूर करने वाले (५) युद्ध के भय को दूर करने वाले (६) जल के भय को दूर करने वाले (७) व्याधि-रोग के भय को दूर करने वाले + see (८) बंधन के भय को दूर करने वाले ये शब्द, वर्ण, एवं अक्षर ही मंत्र-रूप हैं। अतः दूसरे कोई भी मंत्रो की आराध्य मंत्र रूप की आवश्यकता नहीं हैं। फिर भी अन्य टीकाकारों ने अपनी टीका में अन्य मंत्रों को इस गाथा से संबंधित बताया हैं । इस विषय में विद्वानों को ऊहापोह करके समाधान करने जैसा हैं । हम तो इसके समाधान स्वरूप इतना ही कह सकते हैं कि ये गाथाएँ स्वयं मंत्र ही है और अपर-मंत्रो को भी इस गाथा संबंधी मंत्र मानने चाहिए। जैसे पंदरहवीं गाथा में स्वप्न विद्या है ओर बंधमोक्षिणी विद्या भी है । वैसे ही इस गाथा में गाथा स्वयं ही मंत्र हैं और भय निवारण के लिए अपर-मंत्र भी इसी फल को देने वाले बनते हैं। अतः अन्य मंत्र होने पर भी इस गाथाओं को तो उस उस भय निवारक मंत्र मानना चाहिए अर्थात ये नौ गाथाएँ, गाथा और मंत्र दोनों स्वरूप हैं। श्री भक्तामर स्तोत्र कि इस गाथा के प्रभाव एवं चमत्कार के बारे में हमने पढ़ा तो हैं, किन्तु इस गाथा के प्रभाव का हमने स्वयं भी प्रत्यक्ष अनुभव किया, वह इस प्रकार हैं हम जब ऊटी के जंगल में विहार कर रहे थे तब हाथीयों के विकराल जंगल में मेरे एवं मुनिराज नंदियश विजय के पीछे एक हाथी दौड़ते हुए पागल की तरह आ रहा था; जिससे हम भयभीत हो गए। आखिर अंतिम समय जान कर रास्ते से हट कर एक ओर हो गए और वहाँ नवकार मंत्र एवं अपना इष्ट-मंत्र तथा महाप्रभाविक श्री भक्तामर स्तोत्र की इसी ३४ वीं गाथा का पाठ करते ही मदोन्मत्त हाथी शांत हो गया एवं अपनी सूंड़ से हमारे चरणो का दोतीन बार स्पर्श भी किया। यह घटना आज से दस वर्ष पहले ही घटी थी। आज भी जब इस घटना को याद करते हैं तो रोमरोम खड़े हो जाते हैं । " भक्तामर - भक्तामर ही हैं; मात्र श्री चक्रेश्वरी माता ही नहीं अपितु पद्मावती माता भी इस स्तोत्र की अधिष्ठायिका के रूप में कार्य करती हैं जिसका हमें व्यक्तिगत रूप से अनुभव हुआ हैं ।" " नित्य स्मरण रहस्य" प्रभाव कथा - २२ : देवराज एक निर्धन श्रावक होते हुए मन से अत्यंत समृद्ध था । भक्तामर की परम आराधना उसके अन्तर्मन को अमीर बना रही थी, वह भक्तामर का पाठ प्रति-दिन करता था । " जब ग्रह दशा बदलने का समय आता है तब दिशा खुद ब खुद बदलने लगती है।" देवराज व्यापार करने के लिए विदेश रवाना हुए। उनके साथ और भी कई व्यापारी थे। रास्ता जंगल में से होकर पसार हो रहा था । उस भयानक जंगल में उन्हें रात बितानी थी। कुछ ही देर बाद गर्जना करता हुआ एक सिंह आया देख कर सब गभरा कर भयभीत हो गये । सब लोग देवराज के पास पहुँचे । देवराज ने अन्तर्मन की परम श्रद्धा पैंतीसवें श्लोक का स्मरण किया । दहाड़ता हुआ सिंह वश में होकर नम्र बन गया। हमला करना तो दूर रहा उल्टे वह देवराज के चरणों में वंदन करने जैसी मुद्रा में बैठ गया । फिर सिंह ने अपने पंजे में से तीन बेशकिमती रत्न देवराज के सन्मुख रखे। उनके साथी व्यापारी समझ गये कि यह सब करामत देवराज की ही हैं । देवराज ने सब व्यापारियों को जैन-धर्म का बोध रहस्य-दर्शन २०० Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only XXX www.jainelibrary.org
SR No.002588
Book TitleBhaktamara Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyashsuri
PublisherJain Dharm Fund Pedhi Bharuch
Publication Year1997
Total Pages436
LanguageSanskrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size50 MB
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