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में पहनाने का देवी ने निर्देश दिया । इस दिव्य पुष्प-माला को रानी ने अपने कंठ में धारण की तथा इस दिव्य-माला के प्रभाव से यथा-समय रानी को पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई । राजा की खुशी का कोई पार नहीं था; उन्होंने इस पुत्र का नाम चक्रादास रखा । इस पुत्र-प्राप्ति की विधि की पूरी जानकारी उपलब्ध नहीं है, पर इस कथा से ऐसा जानने में आता हैं कि राजा हाल नें अट्ठम की तपस्या कर भक्तामर स्तोत्र का तीन दिन तक अखंडता से जाप किया तथा तप एवं जप के प्रभाव से देवी ने प्रकट होकर अपने भक्त के मनोरथ पूर्ण किए । इस कथा से भव्यात्माओं को तीन-दिन तक अट्टम के तप के साथ अखंडता से श्री भक्तामर स्तोत्र का जाप करना चाहिए, जिससे राजा-हाल की तरह मनोवांछित अवश्य पूर्ण होंगे।
.त्रिसंध्या जाप रहस्य .
•प्रभाव कथा-१९ : श्लोक २८, २९ एवं ३० मे कोई भी कथा का उल्लेख नहीं हैं । ३१ वें श्लोक की टीका में गोपालक नाम के चरवाहा की वार्ता कहने में आई है । भद्र-प्रकृति वाले गोपाल चरवाहा को त्यागी गुरू भगवंतने भव्यात्मा जानकर श्री भक्तामर स्तोत्र एवं श्री नमस्कार महामंत्र का पाठ सिखाया । गुरू-भगवंत की निश्रा में श्रद्धापूर्वक सीखे हुए भक्तामर स्तोत्र एवं नमस्कार महा-मंत्र का गोपाल भाव-पूर्वक प्रति-दिन पाठ करता था साथ ही जैनाचार का भी बखूबी पालन करता था | स्वप्न में गोपाल चरवाहा को प्रातिहार्य सहित जिन-प्रतिमा के दर्शन हुए। ठीक उस अलौकिक स्वप्न-दर्शन के दूसरे ही दिन गोचर (गायों का चरागाह) भूमि में एक जिन-बिम्ब प्रकट हुआ । गोपालने इस अलौकिक नयन-रम्य जिन प्रतिमा को योग्य स्थान पर प्रतिष्ठित किया एवं छ: माह तक प्रतिमा के समक्ष श्री भक्तामर स्तोत्र का त्रिकाल जाप किया । भद्रिक गोपाल के श्रद्धा एवं भाव-पूर्वक किए गए जाप से प्रभावित होकर देवी-चक्रेश्वरी ने गोपाल को राज्य दिलाया । जैन-धर्म का प्रभाव देखिए कि श्रद्धा एवं भक्ति से किए गए जाप के प्रभाव से गोपाल रबारी से राजा बना तथा युद्ध के समय श्री चक्रेश्वरी देवी के अलौकिक प्रभाव से अपराजित भी रहा । श्री महाप्रभाविक भक्तामर स्तोत्र के आराधको को छ: माह तक त्रिकाल पाठ अवश्यमेव करना चाहिए ।
• मंत्र आम्नाय रहस्य . • प्रभाव कथा-२० : गुजरात राज्य के भीम राजा के सेनाधिपति जिणहाक की यह कथा जैन-वीरता की यशस्वी गाथा हैं । यह कथा अन्यत्र भी प्रसिद्ध हुई है । महान दण्डाधिपति ने धवलकपुर (वर्तमान-नाम धोलका) के समस्त क्षेत्र को चोर के भय से मुक्त किया था । बड़ी मुश्किल से जीवन निर्वाह करने वाले इस महान श्रावक पर नवांगी वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरीश्वरजी महाराज ने कृपा कर श्री चक्रेश्वरी देवी की प्रतिमा; ऋषभदेव भगवान एवं श्री पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा प्रदान की । साथ ही श्री कलिकुंड़ पार्श्वनाथ भगवान के मंत्र की आम्नाय भी प्रदान की । यह कलिकुंड़-मंत्र ही इस गाथा का मंत्र कहलाया एवं इस मंत्र के साथ भक्तामर स्तोत्र का नित्य पाठ करने की सलाह दी।
जिणहाक नित्य पार्श्व-प्रभु की प्रतिमा की त्रिकाल पूजा एवं भक्तामर का पाठ भाव एवं श्रद्धापूर्वक करता था । उसकी इस आराधना से प्रसन्न होकर देवी-चक्रेश्वरी ने अपनी सेविका देवी द्वारा एक रत्न जिणहाक के पास भेजा तथा इसे भुजा पर बाँधे रखने का निर्देश दिया । इस रत्न को भुजा पर बाँधने के प्रभाव से जिणहाक को महान दण्डाधिपति पद प्राप्त हुआ । अपने परम उपकारी का स्मरण कर जिणहाक ने कसौटी-पत्थर की पार्श्वनाथ प्रभु की नयनरम्य प्रतिमा बनवा कर भव्य-जिनालय में अपने परम उपकारी गुरु भगवंत पू. आचार्य श्री अभयदेवसूरीश्वरजी के कर-कमलों से प्रतिष्ठित करवाई । इस श्रावक की जैन-शासन के प्रति अटूटश्रद्धा की कथा पठनीय ही नहीं अनुकरणीय भी हैं । इस कथा के विश्लेषण से यह भी पता चलता हैं कि मुख्य आराध्य देवी कभी अपनी सहायिका देवी द्वारा भी भक्तों के मनोवांछित पूर्ण करती हैं।
.स्वानुभव रहस्य. •प्रभाव-कथा-२१ : राजा-सोम ने आचार्य श्री वर्धमानसूरिजी के धर्मोपदेश से प्रभावित होकर जैन-धर्म अंगीकार किया तथा आचार्यश्री के आदेशानुसार श्री नमस्कार महामंत्र एवं श्री भक्तामर स्तोत्र का पाठ करने लगा । राज-कन्या मनोरमा पर जब उपसर्ग हुआ (आपत्ति आई) तव राजा सोम ने इस महाप्रभाविक स्तोत्र की ३४ वीं गाथा का स्मरण किया और देवी चक्रेश्वरी की सहायता से हाथी को वशीभूत कर राज-कन्या को हाथी के चंगुल से छुड़ाया । सोम-राजा ने राज-कन्या मनोरमा से विवाह किया एवं राजपाट भी पाया ।
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