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कराया । मात्र "भय-निवारण'' के लिए ही इस स्तोत्र का स्मरण करना ऐसी भावना कदापि न रखना अपितु नित्य अनन्य-भाव से इसका स्मरण करना चाहिए । कई बार ऐसा भी होता हैं कि जिस मंत्र का नित्य उपयोग पूर्वक स्मरण नहीं होता उसकी जरूरत पड़ने पर वह मंत्र याद भी नहीं आता । अतः “उपयोग पूर्वक नित्य-स्मरण-मंत्र साधना का स्वर्णिम सिद्धांत हैं।"
. “जल-सिंचन रहस्य". •प्रभाव कथा-२३ : प्रतिष्ठानपुर के लक्ष्मीधर शेठ की जैन-धर्म के प्रति अपार श्रद्धा थी । वे श्री भक्तामर स्तोत्र का नित्य ध्यान एवं स्मरण करते थे। शेठजी एक बार अपने साथीयों के साथ जंगल में गये थे तब अचानक दावानल (भीषण-आग) प्रकट हुआ; देखते ही देखते उस भीषण-अग्नि ने प्रचंड़ रूप धारण कर लिया, तब शेठजी ने श्री भक्तामर स्तोत्र का ध्यान किया । अपने भक्त की आपत्ति जानकर देवी-चक्रा ने प्रकट होकर शेठजी को भक्तामर की “छत्तीसवीं गाथा" का स्मरण कर उससे अभिमंत्रित जल से दावानल को सिंचन करने कहा । शेठजी द्वारा थोड़ा अभिमंत्रित जल आग पर छिंटकने मात्र से ही भीषण-अग्नि शांत हो गई; उपस्थित लोग आश्चर्यचकित रह गये । यहाँ पर देवी ने अपनी उपस्थिति में ही इस गाथा की प्रभाविकता को स्थापित किया हैं । जल अभिमंत्रण जैन शास्त्रो का सर्व-मान्य तंत्र हैं । “शांति पानीयं मस्तके दातव्यमिति" अर्थात् शांति से अभिमंत्रित-जल मस्तक पर छिटकना चाहिए। ये बात “श्री बृहत् (बड़ी) शांति स्तोत्र" में विद्यमान हैं; जन सामान्य में यह रिवाज प्रचलित है, श्रद्धा एवं आस्था हमें जरूर सफल वनाती है ।
•“दैवी-कृपा रहस्य". • प्रभाव कथा-२४ : यह कथा महेभ्य-श्रेष्टि की दृढ़व्रता पुत्री की हैं । जिसने भक्तामर-स्तोत्र के प्रभाव से अपने ऊपर आये संकट को दूर कर जिन-शासन के महान-प्रभाव को फैलाया था । अपनी सौतन के द्वारा अपने पति कर्मण को उत्तेजित कर उसे मारने का षड़यंत्र रचा तथा एक घड़े के अंदर जीवित सर्प को रखा । किन्तु भक्तामर स्तोत्र के प्रभाव से घड़े में रखा हुआ सर्प पुष्पमाला में परिवर्तित हो गया तथा सर्वत्र जैन-धर्म का जय-नाद हुआ ।
• “गुरु-साधना रहस्य". • प्रभाव कथा-२५ : गुणवर्मा को श्री भक्तामर की महान-साधना से राज्य की प्राप्ति हुई थी । अपने बंधु रणकेतु को एक गुफा में गुणवर्मा के सैन्य ने घेर लिया था परन्तु रणकेतु विचलित नहीं हुआ। उसने भक्तामर की इस गाथा का स्मरण किया तथा इसके प्रभाव से विजयी भी हुआ । गाथा नं. ३८ एवं ३९ दोनों ही युद्ध-भय के विजय के लिए होने के बावजूद भी ३९ वीं गाथा के स्मरण के वक्त ही चक्रेश्वरी-देवी ने प्रकट होकर गुणवर्मा को वरदान दिया यह उल्लेखनीय हैं।
पूज्य गुरुदेव विक्रमसूरीश्वरजी महाराज ने वि. संवत २०२५ में प्राचीन केसरवाड़ी-तीर्थ (मद्रास) में सामूहिक भक्तामर-पाठ शुरू करने से पूर्व मद्रास के उस चार्तुमास में सब विवादों का शांति-पूर्वक समाधान कर सुंदर धर्म-प्रभावना की थी। वह भक्तामर की इस विशेष-गाथा के जाप से ही सम्भवित हुई थी। उपकारी गुरु-भगवंत नित्य भक्तामर का सामूहिक पाठ करते वक्त इस गाथा का उच्चारण उच्च-स्वर से एवं समान्य से हट कर प्रभावी ढंग से करते थे । “श्रद्धा सदैव फलवती ही बनती हैं।" "इस गाथा की आराधना अपूर्व फल देने वाली हैं।"
• "व्रत-पालन रहस्य". प्रभाव कथा-२६ : ताम्रलिप्त-नगर के धनवाह शेठ ने आचार्य श्री जिनेश्वरसूरिजी के धर्मोपदेश से प्रभावित होकर जैनधर्म अंगीकार किया; एवं हिंसक-वृत्ति का त्याग कर अहिंसा का व्रत धारण किया तथा हृदय में करूणा-भाव को स्थापित किया । शेठ; आचार्यश्री के आदेश से भक्तामर स्तोत्र का नित्य-पाठ श्रद्धा पूर्वक करने लगे। धनवाह-शेठ एक वार सिंहलद्वीप की समुद्रीयात्रा कर रहे थे तव विकटाक्षी देवी ने बीच समुद्र में उपद्रव शुरू किया; एवं हिंसक देवी ने उपद्रव शांत करने के एवज (बदले में) में मानव बलिदान मांगा। परन्तु शेठ ने देवी की बात की परवाह न करते हुए श्री भक्तामर स्तोत्र का पाठ शुरू किया । इस स्तोत्र के ४० वें श्लोक का पाठ करते ही विकटाक्षी देवी के सब उपद्रव निष्फल होकर शांत हो गए। देवी ने भी शेठ धनवाह के व्रत-पालन की दृढ़ता से प्रसन्न होकर शेट को वचन देकर जीव-हिंसा का हमेशा के लिए त्याग किया । धनवाह-शेठ ने चक्रेश्वरीदेवी सहित आदीश्वर परमात्मा की प्रतिमा की नूतन जिनमंदिर बनवाकर प्रतिष्ठित करवाई।
XXXXXXXXXXXXXX रहस्य-दर्शन
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