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________________ • रहस्य दर्शन. श्री भक्तामर स्तोत्र बहुत ही चमत्कारिक एवं प्रभावशाली काव्य-रचना है। यह स्तोत्र है या मंत्र ? स्तोत्र याने क्या ? मंत्र याने क्या ? श्री नवकार सूत्र को नमस्कार-मंत्र कहने में भी आता है, और भक्तामर काव्य को भक्तामर स्तोत्र कहने में आता है। इन दोनों में क्या भेद समझना ? "प्रबंध चिन्तामणी ग्रन्थ' के उल्लेख के अनुसार आचार्य मानतुंग सूरीश्वरजी को आदीश्वर प्रभु के जिनालय के पिछले भाग में चौंवालीस वेडीयों में जकड कर रखा गया था । उन्होनें वहीं पर भक्तामर स्तोत्र की रचना की एवं ४४ श्लोकों के प्रभाव से सारी वेड़ीयाँ एक एक कर टूटती गई एवं स्तोत्र-पाठ के पूर्ण होते ही पूरा जिनालय उस स्थान से हट कर आपके सन्मुख स्थापित हो गया । ऐसे कितने ही चमत्कार इस स्तोत्र के प्रभाव से हुए है । भक्तामर की कथाओं में ऐसे अनेक चमत्कारों का वर्णन आता है । आज तक भी भक्तामर-पाठ से अनेक चमत्कार देखने व सुनने में आते हैं । भक्तामर स्तोत्र में अनेक चमत्कारिक मंत्रों का खजाना देखने में आता है । इस से पता चलता है कि मंत्रों के अन्दर महान शक्तिशाली एवं प्रभाविक शब्दों का समावेश होता है । इन मंत्रों के बारे में बहुत कुछ जानने योग्य है । जिन-शासन में भी शासन की स्थापना के साथ ही मंत्रों का महत्त्व स्थापित हुआ है । नवकार नव पदों की गद्य-पद्य रचना है । नवकार सूत्र को भी श्री नवकार मंत्र ही गिनने में आया है । यह नवकार-मंत्र सव मंत्रों में महा-मंत्र है, एवं सब मंगलों में प्रथम मंगल है । पाँच-परमेष्टि को वन्दना एवं इन पाँचों को किये गये नमस्कार के फल का भी इसमें वर्णन किया गया है.. फिर भी इस समस्त शाश्वत रचना को नवकार मंत्र ही कहने में आया है । "श्री नमस्कार समो मंत्रो न भूतो न भविष्यति" ऐसा शास्रकार महर्षि कहते हैं । जैन-जीवन में जन्म से मरण तक के हर प्रसंग पर नवकार-मंत्र का स्मरण अनिवार्य बन गया है । जैन-जीवन इस मंत्र से ओत-प्रोत है - ऐसा कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वैसे तो भक्तामर स्तोत्र भी अनेक मंत्रों से परिपूर्ण है, एवं इसे जिन-भक्ति का महान-काव्य, महान-स्तवन, एवं अद्वितीय-स्तोत्र भी कहा जाता है फिर भी भक्तामर-स्तोत्र की प्रसिद्धि स्तोत्र रूप में ही है। मंत्र-शास्त्र की दृष्टि से नवकार-सूत्र एवं भक्तामर-स्तोत्र इन दोनों रचनाओं को "माला-मंत्र" कहा जा सकता है । श्री नवकार महा-मंत्र पंच-परमेष्टि के नमस्कार रूप होने से जिन-शासन के जिन-भक्ति के तमाम स्तोत्र श्री नवकार-मंत्र के विस्तार रूप ही होते है । क्योंकि उनमें अरिहंत परमात्मा की स्तुति ही प्रमुख होती है । वैसे श्री भक्तामरस्तोत्र - नवकार-महामंत्र का विस्तार ही है - ऐसा कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । “नमो अरिहंताणं' पद का "श्री भक्तामरस्तोत्र" विस्तार है, ऐसा विशेष रूप से कहा जा सकता है । श्री नवकार मंत्र में भी पंच-परमेष्टि को किया गया नमस्कार सर्व पापों को, सर्व-विघ्नों को एवं सर्व-दोषों को निवारण करने वाला माना गया है - एवं सर्व-मंगलों में प्रथम मंगल रूप कहा गया है, ठीक उसी प्रकार श्री भक्तामर स्तोत्र अरिहन्त भगवान का विस्तृत नमस्कार रूप ही है, जो आठ महा-भय आदि को दूर कर वाह्य एवं अभ्यंतर लक्ष्मी को देने वाला परम-मंगल है । वैसे श्री भक्तामर-स्तोत्र तो मंगलमय है ही, एवं नवकार मंत्र का विस्तार रूप ही है - ऐसा आपने बताया । फिर भी मंत्रों का जिनशासन में स्थान-महत्त्व एवं श्री भक्तामर स्तोत्र का इसके सिवाय अन्य कौन से महा-मंत्र के साथ संबंध है ? कब से है ? और मंत्रो का कितना महत्त्व है। मंत्र जैसा दूसरा शब्द विद्या है, तो मंत्र एवं विद्या में क्या फर्क है ? मंत्र हो या विद्या पर उनसे कार्य कैसे होता है, उनको बौद्धिक एवं वैज्ञानिक तरीके से समजायें ? मात्र मंत्र की ही महिमा लिखने गये तो स्वतंत्र ग्रन्थ लिखना पडे । श्री नवकार-सूत्र को ही हमनें “नवकार-मंत्र" रूप माना है अतः जैन शासन में अनादि अनंत काल से मंत्रों का विशिष्ट स्थान रहा है । मंत्र जैसा ही एक दूसरा शब्द हमारे शासन में प्रसिद्ध है - 'विद्या" । शास्रों के प्रमाण से पता चलता है कि प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव प्रभु की सेवा में रहे हुए नमि एवं विनमि विद्याधरों को नागराज (धरणेन्द्र) ने प्रसन्न होकर हजारों विद्यायें प्रदान की । ये सव विद्यासाधना द्वारा नमि-विनमि एवं उनके वंशजों ने अनेक चमत्कारिक कार्यो को पूरा कर अपने जीवन को सफल बनाया था । इन सभी विद्याओं की साधना एवं सिद्धि उनके जीवन में इस तरह व्याप्त हो गयी थी, कि वे विद्याधर कहलाने लगे। विद्याधर अपनी ही वंश-परम्परा को विद्यायें प्रदान करते थे और वे उसकी सिद्धि करते थें । ऐसा उल्लेख शास्रों में मिलता है, “ससाधना विद्या" तथा "पाठ सिद्धो मंत्र" अर्थात् जिस को प्राप्त करने के लिए तप वगैरह की साधना करनी पडे उसे “विद्या" कहने में आया है, और मात्र पाठ से सिद्ध करने में आता है उसे “मंत्र" कहने में आया है। दोनों की अलग-अलग व्याख्या कोई विशेष लक्ष्य को लेकर ही हुई होगी... अथवा कोई काल में इन-दोनों की व्याख्या ठीक रही होगी । परन्तु उसके बाद के काल में यह बात नहीं रही है । जैसे जैन आचार्य भगवंत का परम-शक्ति स्तोत्र "सूरि-मंत्र" (१८६ रहस्य-दर्शन Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002588
Book TitleBhaktamara Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyashsuri
PublisherJain Dharm Fund Pedhi Bharuch
Publication Year1997
Total Pages436
LanguageSanskrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size50 MB
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