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________________ है वैसे ही उपाध्याय या पंन्यास-प्रवर का शक्ति-सर्जक स्तोत्र “वर्धमान-विद्या" कहने में आया है । शास्रकारों ने दोनों की साधना बताई है और साधना के बाद ही वर्धमान-विद्या एवं सूरि मंत्र फलदायी बनते हैं - ऐसा देखने में आया है । मंत्र; मात्र पाठ-सिद्ध ही हैं - ऐसी बात नहीं है, मंत्र शास्त्र में कितने ही मंत्र पाठ सिद्ध-मंत्र हैं - ऐसा बताया गया है । अतः पाठ-सिद्ध सिवाय के दूसरे मंत्र मात्र पाठ से ही नहीं अपितु साधना - वगैरह से सिद्ध होने वाले है यह तय हुआ । जैन-शास्त्रों में मंत्र' एवं 'विद्या' दोनों ही शब्द एक-दोनों के पर्यायरूप से प्रसिद्ध भी हैं । सूरिमंत्र को जैसे सूरिमंत्र कहा गया है ऐसे उनको गणधरविद्या भी कहा है । विद्या एवं मंत्र दोनो ही प्रभावशाली शब्द रचना हैं । विद्या एवं मंत्र के पठन से सामान्यतया अशक्य लगने वाले कार्य भी पूर्ण होते है । मंत्र का पाठ-करने वाले एवं स्मरण करने वालों का असंभव सा लगने वाला कार्य चमत्कार से पूर्ण हुआ ऐसा प्रतीत होता है । मंत्र एवं विद्या द्वारा चमत्कारिक कार्यो का होना दुनिया के लगभग तमाम इतिहासकार एवं हर धर्म के अनुयायी मानते है । ईसाईयों एवं मुसलमानों में भी मंत्र-शास्त्र की उपलब्धता है । आदिवासी लोगों में भी मंत्र-परम्परा चली आ रही है । मंत्रों के अन्दर यानि एक तरह की शाब्दिक रचनाओं में शक्तियों का संचार होना दो प्रकार से माना गया है। शास्त्रों के अनुसार आत्मा में अनंत शक्ति विद्यमान है । आत्मा इस अनन्त-शक्ति की अभिव्यक्ति मन-वचन एवं काया द्वारा करती है । जैनपरम्परा की एक महान देन है कि मन एवं वचन और उससे भी आगे आत्मा के ऊपर आवरण-रूप लगे हुए कर्म को सम्पूर्णतयाभौतिक माने गये है । मन-वचन एवं कर्मो के परमाणु समस्त ब्रह्मांड में सर्वत्र विद्यमान है । एवं बहुत ही स्वल्प-समय में पूरे विश्व में फैल जाते हैं । इन पुद्गलों की अचिंत्य शक्ति से कई चमत्कारिक कहलाने जैसे कार्य होते हैं। आज टेलिफोन एवं दूरदर्शन से होने वाले कार्य एक समय में मात्र मांत्रिक-सिद्धि से होते थे, आज भौतिक-विज्ञान के माध्यम से शब्द एवं रूप जन-साधारण को सुलभ हो गये हैं । ये माध्यम शब्दों को लाखों मील दूर तक पहुँचाने में सक्षम हैं; घटना स्थल के जीवंत-चित्रण को हजारों मील दूर तक अपने अनुकूल स्थान में दिखाने की व्यवस्था करते हैं । भौतिक विज्ञान की यह उपलब्धि निर्विवाद एवं महान है - फिर भी उसमें नियम तो पदार्थ-विज्ञान का ही है । पिछले कुछ वर्षों से रीमोट कन्ट्रोल के द्वारा कार्य करने की शुरूआत हुई है । कोई भी अभिभावुक कार्य-स्थल से दूर रह कर समस्त क्रिया को नियंत्रित कर क्रिया को उसके अंजाम तक पहुँचाता है । इस समस्त प्रक्रिया में विज्ञान के अनेकानेक स्थूल साधनो की आवश्यकता पडती है । ठीक इसी के विपरीत इन संसाधनों का दुरुपयोग भी प्रायः होता है और दुरुपयोग होता है तो उसे रोकने का कोई उपाय नहीं है | मंत्र विज्ञान भी ऐसा ही शक्तिमान शास्र है। श्री उवसग्गहरं स्तोत्र में देवों को भी मानो रिमोट-कन्ट्रोल (Remote Control) के माध्यम से स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने की असीम-शक्ति का उल्लेख था । परन्तु उसका दुरुपयोग होते देख पूज्य आचार्य भद्रबाहुसूरीश्वरजी ने तुरंत उन शक्तियों की क्षमता को वापस ले लिया था । वैसे मंत्र विज्ञान की कार्य-कारिता में आज के वैज्ञानिक युगने अपार श्रद्धा जगाई है । आधुनिक विज्ञान वैसे आस्तिक नहीं है परन्तु उसने नास्तिकों के लिए भी मंत्रों का अर्थ प्रकट कर दिया है । विज्ञान अपनी खुद की धुन पर अभी भी ऐसे कई कार्य भौतिक-विज्ञान के माध्यम से कर रहा है ऐसा प्रतीत होता है । जैसे-जैसे विज्ञान प्रगति करता रहेगा वैसे-वैसे मंत्रों के अर्थ और मंत्रों की महत्ता एवं शब्दों की पुदगलों की अनंत-शक्ति जन-सामान्य के समझ में आयेगी । पुद्गलों की अनंत-शक्ति, संकल्प की महान-शक्ति एवं आत्मा की अनंत-शक्ति, एक धारा में स्थित हो कर अगम्य एवं अशक्य कार्य कर सकती है । मंत्र-वाद के द्वारा देवों की दुनिया (देव-लोक) में संदेश अवश्य पहुँचता है । इस संदेश के द्वारा जब भी कोई देवलोक के देव संदेश भेजने वाले यानि मंत्र-तंत्र-यंत्र या स्तोत्र के आराधक पर प्रसन्न होते हैं, तब देवता अपनी अलौकिक शक्ति के माध्यम से आराधक-साधक के अपेक्षित-कार्य एवं उनके मनोवांछित को पूर्ण करते हैं। कई मंत्र ऐसे हैं जिसे हम देवों के कोर्ड-वर्ड (Code Word) भी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । एक विचार ऐसा भी आता है कि जो शब्दो या पद, आराधक की शक्ति-शब्द एवं मन के पुद्गलों की शक्ति से कार्य करते है, वे मंत्र हो सकते है और जो शब्द या पद देवताओं को आकर्षित कर उनके द्वारा कार्य पूर्ण कराते हैं, वह विद्या हो सकती है । यह कुछ भी हों किन्तु इन सम्पूर्ण प्रक्रियाओं के द्वारा असाध्य एवं अशक्य लगने वाले कार्य पूर्ण एवं सिद्ध होते हैं; यह बात निर्विवाद है | चाहे मंत्र कहो या विद्या परन्तु अपने से दूर रहे हुए देव-लोक के देवताओं द्वारा अदृश्य-तरीके से कोई चीज प्राप्त करना या कार्य का पूर्ण होना, यह महान शक्ति का द्योतक है । मंत्र या विद्या का चाहे जितना रहस्य प्रकाशित भले ही हो फिर भी प्रकाशित से अप्रकाशित-रहस्य अधिक ही रहेगा ऐसा प्रतीत होता है। मंत्र या विद्या, मात्र भौतिक-लाभ ही प्रदान करते हैं ऐसी बात नहीं है । आत्म-शक्ति को प्रकट कर आत्मा को भौतिक आकर्षणों से दूर कर; विरागी एवं वीतरागी बना कर मोक्ष भी प्रदान करते हैं | मोक्ष न मिले तब तक साधक को परम-प्रसन्नता एवं परमानंद की सहज प्राप्ति कराते हैं । जब मंत्रों के द्वारा ध्यानमयी-साधना में साधक आगे बढता है तो अनाहत नाद का अनुसंधान होता है उस समय साधक पर कैसी भी भीषण गर्मी एवं कडकडाती ठंड भी बेअसर हो जाती है । साधक इच्छानुसार चाहे पर्वत हो या समुद्र उसे अनुपम शक्ति के द्वारा लांघ सकता है और साधक को आत्मा का नैकट्य प्राप्त हो कर साक्षात्कार हो जाता है । XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX रहस्य-दर्शन रहस्य-दर्शन १८७) १८७ Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002588
Book TitleBhaktamara Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyashsuri
PublisherJain Dharm Fund Pedhi Bharuch
Publication Year1997
Total Pages436
LanguageSanskrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size50 MB
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