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आ गाथामां जोवा मळे छ । आ यतिवृषभाचार्यनो समय शक सं० ३८० (वि. सं. ५१५) बताववामां आवे छे अने तिलोयपण्णत्तिनो रचना समय शक सं० ४०५ लगभग बताववामां आवे छे।
जुगल किशोर मुख्तार 'तिलोय पणत्ति देवर्द्धि गणि के श्वेताम्बरीय आगमग्रन्थो और आवश्यक नियुक्ति आदिसे पहले हुई है' आम जणावे छे, पण आमां तेमनो पक्षपात ज देखाय छे । श्वेताम्बरआगमग्रन्थो देवर्द्धिगणिए बनाव्या नथी, पण पुस्तकारूढ कर्या छ । एमनो समय हालमा वीर०नि०९८० (वि० सं५१०) मनाय छे ज्यारे यतिवृषभआचार्यनो समय वि० सं० ५१५ मनाय छे । नियुक्तिओनी रचना तो एथी य घणी प्राचीन छे ए वात नयचक्रमूळकारना समयनिर्णयमां पाछळ विचारी आव्या छीए। आम होवा छतां टीकाकारे तिलोयपण्णत्तिना आधारे ज चार अङ्गुलना घासनी वात लखी छे ए विचारवा जेतुं छे । वर्तमानमां मळतां एवा घणा स्थळो छे के जे उपलब्ध आगमोमां मळता नथी । तेम आमां पण बन्युं होय तो शी खातरी!
कुन्दकुदाचार्यकृत 'समयप्राभृत' ना कर्तृकर्माधिकारमा ‘जीवपरिणामहेउं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गल कम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ ॥१२॥ आ गाथाना समानार्थक अने नहीं जेवा ज फरक वाळी गाथा टीकाकारे पृ०४६१ मां आ प्रमाणे टांकी छे 'जीवपरिणामहेउं कम्मत्ता पोग्गला परिणमंति । पोग्गलकम्मणिमित्तं जीवोवि तहेत्र परिणमइ ॥' मलयगिरि सूरिनी प्रज्ञापनावृत्तिमां पण आ रीते आ गाथा छ । अन्य ग्रन्थोमां पण आ गाथा जोवा मळे छे। कर्मप्रकृतिनी पाइयटीकाचूर्णिमां पण आवे छे । आ चूर्णिना कर्ता कोण क्यारे थया ते विषयमा अमे कशोज हजी सुधी अभ्यास कर्यो नथी । गमे तेम होय पण आ गाथाना मूलका कुन्दकुन्दाचार्य हशे ! आ आचार्य विक्रमनी प्रथम शताद्वीमां थया छे एम मनाय छे । जो कुन्दकुन्दाचार्य प्रथम सदीना ज होय तो श्वेताम्बर अने दिगम्बर भेद पड्या ते पूर्वना छे एम अवश्य स्वीकारवु पडे;
कल्पसूत्रनु पण प्रमाण टीकाकारे 'अप्पणो निक्खमणकालं आभोएत्ता चइत्ता रज्ज' आ प्रमाणे मूक्यु छे। आ कल्पसूत्रना कर्ता चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहुस्वामी महाराज छे ए सुप्रसिद्ध छे। आनाथी कल्पसूत्रनी प्राचीनता पण पूरवार थाय छे । केटलाको शंका उठावे छेए के आ भद्रबाहुखामी वी० सं १७० मां थएल नथी, पण विक्रमनी छट्ठी सदीमां थया छे आ क्यांसुधी ठीक छे ते विद्वानो विचारी लेशे।
सिंहसरिगणिजीए 'योनिप्राभृत' नुं पण प्रमाण टांक्युं छे । योनिप्राभृत ए बारमा अंगरूप पूर्वसूत्रमांनो एक विभाग छ। पूर्वनो व्युच्छेद वी० नि० १००० मा थियो छे । जेथी आनी प्राप्ति दुःशक्य ज नहीं पण असम्भवी छ । जो टीकाकारे योनिप्रामृत जोईने प्रमाण टांक्युं होय तो कहेवू ज पडे के तेओ पूर्वधर आचार्य हता । क्षमाश्रमण विशेषण पण पूर्वज्ञानना ज्ञाता साबित करे छे। जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणजीए विशेषावश्यक भाष्यमा ( १७७५ मी गाथामां ) 'जोणिविहरण' शब्दथी योनिप्राभृत प्रकीर्णक समजवानी सूचना करी छ । व्यवहारसूत्र भाष्य (गाथा ५८ ) बृहत्कल्पभाष्य (गाथा १३०३) जोणिशब्दनो अर्थ योनिप्राभृत कों छ । एक सूत्रमा जोणि शब्दनो अर्थ ज्योतिषने जणावनार पण कर्यो छे ।
योनिप्राभृत नामनी एक प्रति हालमा बर्लिन शहेरनी लायब्रेरीमा मळे छे । अने बीजी पूना मां मळे छे .... १ अनेकान्त वर्ष २ किरण । २ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश, पृ० ५६ । ३ पृ. ४५५ । ४ अनेकान्त वर्ष २ पृ० ५२१ । ५ प्रवचन परीक्षा मुम्बई १९३५ नी प्रस्तावनामां ई. स. प्रारम्भ कह छ,
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