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________________ २२ बुद्धमित्रने वादमा हराव्यो, केटलाक समय पछी गुरुना पराजयने सांभळीने वसुबन्धुए विन्ध्यवासीने शास्त्रार्थ माटे आमंत्रण आप्यु । परन्तु त्यारे ते विंध्यवासी मृत्यु पाम्या हता। तेथी पोताना मनने संतोषवा खातर सांख्यसप्ततिना खण्डनमा परमार्थसप्ततिनी रचना करी । परन्तु आ विध्यवासी ईश्वरकृष्ण नथी एम अमने लागे छ । केमके केटलाक ऐतिहासिको एम पण कहे छे के ईश्वरकृष्णनो वसुबन्धुना शिष्य दिङ्नागनी साथे शपथपूर्वक शास्त्रार्थ थयो हतो । तेमां ईश्वरकृष्णे हारी गया होवा छतां बौद्धधर्मने स्वीकार्यो नहीं । आथी विषण्ण थई दिङ्नागे लोकोपदेश बन्ध करी दीधो । पछी आर्यमञ्जुश्रीनी प्रेरणाथी शान्त थईने प्रमाणसमुच्चयनी रचना करी एम परस्पर विरुद्ध वातोथी संशय थाय छे के आ बे कथनोमां कयुं साचुं छे ! गमे तेम होय सांख्यसप्ततिना कर्ता विन्ध्यवासी ईश्वरकृष्ण नथी । केमके बन्नेनो सिद्धान्त मिन्नभिन्न छ । हां, रुदिल नामना एक सांख्याचार्य हता। तेनी साथे बुद्धमित्रनो वाद थयो हशे ! 'यदेव दधि तत्क्षीरं यत्क्षीरं तद्दधीति च । वदता रुद्रिलेनैव ख्यापिता विंध्यवासिता ॥' आ प्राचीन कारिकामां विन्ध्यवासी रुद्रिलनो उल्लेख छ । अनुयोगद्वारमां कनकसप्ततिनो उल्लेख छ आ कनकसप्तति (सुवर्णसप्तति) सांख्यसप्तति मानवामां आवे तो ईश्वरकृष्ण विक्रमराज्य कालनो अथवा तेनाथी पूर्ववर्ती साबित थाय छे । आ वात तो नक्की छ के वसुबन्धु अथवा दिङ्नाग नी साथे ईश्वरकृष्णनो कोई पण सम्बन्ध न हतो। शङ्करस्वामी, हरिभद्रसूरि, अने माठराचार्य आ त्रणे विद्वान, वसुबन्धुना शिष्यो हता।माठराचार्ये सांख्यसप्ततिनी व्याख्या रची छे जेनो चीनीभाषामा अनुवाद परमार्थ महाशये (५००-५६० ई. स) को हतो एम बौद्ध ऐतिहासिको कहे छ । आ वातने इतिहासकार तिलकमहाशय स्वीकारता नथी । अमे पण एम ज मानीये छीए । केमके माठरवृत्ति अने परमार्थना अनुवादमां थोडं पण साम्य देखातुं नथी । माठरवृत्तिमां ईश्वरकृष्णने बहुमानपूर्वक याद करे छे । माठरनु नाम पण अनुयोगद्वारमां मिथ्याश्रुतना उदाहरणमां आवे छे । श्रीभगवतीजीमां केवल षष्टितंत्रनो ज उल्लेख छे माटे ईश्वरकृष्ण अने अनुयोगमां पठित माठर ज माठराचार्य होय तो माठराचार्यनो समय श्रीभगवतीजीना पछी अने अनुयोगद्वारथी पहेलांनो छे एम सिद्ध थाय छे । अनुयोगद्वारकर्ता आर्यरक्षितसूरिजीनो समय विक्रमसंवत ५२ मां जन्म अने दीक्षा ७४ युगप्रधानपद ११४ खर्गवास १२७ मां छे। वसुबन्धुना शिष्य हरिभद्रसूरि पण जैनमतप्रसिद्ध अनेकान्तजयपताकादि महान् ग्रन्थोना रचयिता हरिभद्रसूरीश्वरथी जुदा छे। जैनाचार्य हरिभद्रसूरिए तो पोताना ग्रन्थोमां धर्मकीर्ति आदि प्राचीन अर्वाचीन बौद्धोना सिद्धान्तनुं निराकरणकयुं छे । ___नयचक्रमां मल्लयादि सूरिम० प्रथम अरमां 'चक्षुर्विज्ञानसमङ्गी नीलं विजानाति नो तु नीलम्' आम 'बुद्धवचन' 'अभिधर्मागम' तथा तेनी व्याख्यारूप वसुमित्र विरचित 'प्रकरणपाद' नो पण निर्देश १ महतः षडविशेषाः सृज्यन्ते पञ्चतन्मात्राण्यहङ्कारश्चेति विन्ध्यवासी, प्रकृतेर्महान् ततोऽहङ्कारस्तस्माद्णश्च षोडशक इतीश्वरकृष्णःः, इन्द्रियाणि विभूनीति विन्ध्यवासी, परिच्छिन्नपरिमाणमित्यपरे. अधिकरणमेकादशविधमिति विन्ध्यवासी, त्रयोदशविधमित्यपरे, संकल्पाभिमानाध्यवसायानामन्यत्वमपरेषाम् , एकत्वं विंध्यवासिनः, अन्येषां महति सर्वार्थोपलब्धिः, मनसि विंध्यवासिनः, सूक्ष्मशरीरं नास्तीति विन्ध्यवासी, अस्तीति ईश्वरकृष्णादयः । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002587
Book TitleDvadasharnaychakram Part 4
Original Sutra AuthorMallavadi Kshamashraman
AuthorLabdhisuri
PublisherChandulal Jamnadas Shah
Publication Year1960
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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