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शून्यवादी नागार्जुन अने सिद्धसेनदिवाकरनी कृतिओनुं साम्य देखाडीने दिवाकरसूरिनो पांचमा अथवा चोथा शतकनो समय-निर्णय केटलाक इतिहासकार करे छे ते विचारणीय छ ।
शून्यवादना नामोच्चारणमात्रथी दिवाकरजी महाराज नागार्जुनना पश्चात् वर्ती छे एम कही शकाय नहीं, शून्यवादनो उदय नागार्जुनथी ज थयो नथी, शून्यवाद नितान्त प्राचीन छे शून्यवादनुं प्रतिपादन 'प्रज्ञापारमितासूत्र'मां आवे छे, सिद्धसेन बत्रीसीमां मध्यममार्गना अने शून्यवादना निदर्शन मात्रथी नागार्जुन पछीना दिवाकरसू० छे आवी कल्पना थाय नहीं । हां ! जरूर नागार्जुननी युक्तिओ के वचना लीधा होत तो ए कल्पना साची कहेवाते । दिवाकरसू० म० ना ग्रन्थो मूलमात्र ज हालमां मळे छ । आथी मारो नम्र अभिप्राय छे के ज्यां सुधी प्रबल प्रमाणो न मळे त्यां सुधी कल्पनामार्गथी काळनो निर्णय करवानी उतावळ करवी जोइए नहीं ।
पू० हरिभद्रसूरि दिवाकरसूरिने श्रुतकेवलीनु मानभर्यु बिरुद आपे छ । आथी पण प्राचीन-अतिप्राचीन होवा जोइए । वळी नागार्जुने मध्यमकारिकानी संस्कृत परीक्षा पृ. ४५-५७ मा उत्पत्ति स्थिति अने व्ययन के जेनुं निरूपण दिवाकरसूरि म० कयु छे तेनुं खण्डन कयु छे । आथी पण सिद्धसेनसूरि म० नागार्जुन थी पूर्वकालीन सिद्ध थाय छे ।
आ आचार्यश्रीए दिगम्बर मतनी कशी आलोचना करी होय तेम लागतुं नथी, एटले वी० सं. ६०६ अने दिगम्बरीयोल्लेख प्रमाणे वी० सं०६०९ मां जे मत नीकळ्यो छे आनाथी पूर्ववर्ती दिवाकरसू० म० होवा जोइए । जेथी बन्ने सम्प्रदाय तेमना ग्रन्थना प्रमाणरूपे उद्धरणो टांके छे ।
वी० सं. ३९२-४९५ मां धर्मसूरि थया एम मानवामां आवे छे । आ आचार्य भगवानना समयमां आ० खपुटाचार्य वृद्धवादिसूरि थया इत्यादि लखतां विचार श्रेणीमां आ० सिद्धसेनदिवाकरसरिने आ आचार्यना शिष्य तरीकेनो पण उल्लेख करेलो छ ।
सिद्धसेनसूरिना गुरु तरीकेना बे नाम प्राप्त थाय छे । एक वृद्धवादिसूरि अने बीजा आ० धर्मसूरि महाराज । जो के सिद्धसेनसूरिए पोताना गुरुतरीके बन्नेमांथी एकनो पण उल्लेख कर्यो होय तेम जोवा जाणवा मळ्युं नथी । जो आ बन्नेयनो समन्वय साधवो होय तो वृद्धवादिसूरि म०ने धर्मसूरिना समानकालीन मानवा पडे ! जो आ वात साची ठरे तो वृद्धवादिसूरिना गुरु प्रथम स्कन्दिलाचार्य ज छे आ मान्यतामां कशो वांधो आवतो नथी । विक्रमना समसामयिकपणामां पण कशो ज बांधो ऊभो रहेतो नथी । एक बीजं पण प्रमाण अहीं उद्धृत करीए छीए के सिद्धसेनदिवाकरे कोई व्याकरणनी रचना करी होवी जोइए ! ए व्याकरण- नाम 'क्षपणक व्याकरण' हतुं । विक्रमना समयमा जे विद्वानो हता तेमां सिद्धसेनदिवाकर पण एक हता । जेमनो उल्लेख अन्य ग्रन्थकारोए 'क्षपणक' ना नामथी कर्यो छे । कालिदासविरचित 'ज्योतिर्विदाभरण' मां 'धन्वन्तरिः क्षपणकोऽमरसिंहशङ्कः वेतालभट्टघटकपरकालिदासाः ।
१. बौद्धदर्शन पृ. १९५। २ 'अतीत्य नियतव्ययौ स्थितिविनाशमिथ्यापथौ निसर्गशिवमात्य मार्गमुदयाय यं मध्यमम् । त्वमेव परमास्तिकः परमशन्यवादी भवान् त्वमुज्वलविनिर्णयोऽप्यवचनीयवादः पुनः॥'
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