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________________ आ बधु जोतां ब्रह्मदीपिका शाखामां थयेला अनुयोगधर स्कन्दिलाचार्य केवी रीते दिवाकरसूरिना प्रगुरु होई शके ! सिद्धसेन दिवाकर सूरिने के एओश्रीना गुरु वृद्धवादिसूरि म० ने कोई पण ग्रन्थकारे ब्रह्मदीपिकाशाखाना ओळखाव्या नथी. पं० श्रीकल्याणविजयजी पादलिप्तसूरि म० ने वज्रसेनना शिष्य विद्याधरथी प्रसिद्ध थयेला विद्याधर कुलना जणावे छे, पण आर्य सुहस्तिना शिष्ययुगल सुस्थित अने सुप्रतिबद्धना शिष्य विद्याधर गोपालथी प्रगट थयेल विद्याधरशाखामां नागहस्तिस्थविर गणवा-मानवा युक्तियुक्त छे, प्राचीनशाखाओ कालान्तरे कुलना नामथी, कुलो गच्छना नामथी, प्रसिद्ध थयां छे । आ ज वात नागहस्तिआचार्यना विद्याधर-गच्छना सम्बन्धमां पण बनवा पामी छे । आथी पादलिप्तसूरि म० ने विद्याधर कुलना अथवा वंशना कहेवामां आवे तो कोई हरकत देखाती नथी । ____ आथी विक्रमसंवत् १५० नी गिरनारनी प्रशस्तिमां जणाववामां आव्युं छे के विद्याधरवंशना पादलिप्ताचार्यनी आम्नाय (वंश)-मां वृद्धवादिसूरिम० थया, आमां कशी शङ्का करवा जेतुं रहेतुं नथी, प्रभावकचरित्रकर्ताए एज प्रशस्तिनुं प्रमाण आप्यु छे. त्यारे एमां शङ्का लाववी ए न्याय्य नथी । बीजी वात नागार्जुन के जे पादलिप्तसूरि म० ना गृहस्थशिष्य योगसिद्धतरीके प्रसिद्ध छे ते नन्दिनी स्थविरावलीमा आवता नागार्जुनथी भिन्न छे, गृहस्थ स्थविरावलीमां केवी रीते आवे ! जो के पूज्य पादलिप्तसूरि म० ना गुरु आर्य नागहस्ति नथी पण आर्य खपुटाचार्य ज छे कल्पचूर्णिमां पादलिप्तसूरि म० ने वाचक कहेवामां आव्या छे अने नन्दिमां नागहस्ति ने वाचकवंशना कह्या छ । तेथी नागहस्तिना शिष्य पादलिप्तसूरि होवा जोइये आम नन्दिनुं प्रमाण आपीने पादलिप्तसूरि म० ने नागहस्तिना शिष्य ठराववा प्रयत्न थयो छे ते बराबर नथी, केम के नन्दिमा आवता 'वढउ वाचकवंशो जसवंशो नागहत्थीणं' आ वाक्यनो अर्थ फक्त एटलो ज थाय के नागहस्ति आचार्य वाचक वंशना छे पण एमनाथी वाचकवंश शरू थयो ए केवी रीते कहेवाय ? ___पादलिप्तसूरि म० विक्रमना प्रथम शतकमां थया छे एम केटलाक माने छे ते पण विचारणीय छे। अनुयोगद्वारमा पादलिप्तसूरि म० नी तरङ्गवतीनो नामोल्लेख आवे छे अनुयोगनुं निर्माण वी० सं ४५३ नी पहेलां छे पण पछी तो नथी आ प्रमाणे प्रभावकचरित्रना प्रबन्धपर्यालोचनमां पं० कल्याणविजयजी जणावे छे, एटले पादलिप्तसूरि म० वी० नि० ४५३ थी पूर्वना आचार्य छे ए वात स्पष्ट थई जाय छे आथी प्रथमस्कन्दिलाचार्य ज वृद्धवादिसूरि म० ना गुरु छे अने सिद्धसेनदिवाकर सूरि म० ना प्रगुरु छे । अनुयोगधर स्कन्दिलाचार्यनी वाचना समये मल्लवादि पण हता एम 'जैनपरम्पराना इतिहास'मां जणावायुं छे, आ वात जो बराबर होय तो द्वितीयस्कन्दिलाचार्यना प्रशिष्य दिवाकरसूरिम० होई शकता नथी, पादलिप्तसूरिम० नो मुरुण्डनी साथे सम्बन्ध बताववामां आव्यो छे, त्यां जैनाचार्योए 'मुरुण्ड' नो राजा तरीके उल्लेख करेलो जोवा मळे छे, आनो इतिहास हजी सुधी अंधकारमा छ । १-ई० स० प्रथमसदीनुं अनुयोगद्वार छे. जुओ दर्शनचिंतन (प्रमाणमीमांसानो उपोद्घात) पृ० १७६ । न०प्र० २ Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002587
Book TitleDvadasharnaychakram Part 4
Original Sutra AuthorMallavadi Kshamashraman
AuthorLabdhisuri
PublisherChandulal Jamnadas Shah
Publication Year1960
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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