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________________ ध्वजा कुम्भ पद्म सरोवर धर्मोपदेश प्रारम्भ करने से पूर्व भगवान ने विनय का आर्दश प्रस्तुत किया समवसरण में विराजित तीर्थकर भगवान धर्मोपदेश प्रारम्भ करने से पूर्व 'नमस्तीर्याय प्रवचनरूपाय' इस प्रकार बोलकर तीर्थ को प्रणाम करके पंचेन्द्रियसंझी देव-मनुष्य-तिर्यचादि सभी सर्वसामान्य जीव समझ सके, इस आशय से अर्द्ध-मागधी भाषा के साधारण शब्दों में उपदेश प्रारम्भ करते हैं। वे सर्वप्रथम तीर्थ को इसलिए नमस्कार करते हैं, क्योंकि उनको तीर्थकरत्व तीर्थ के कारण ही प्राप्त हुआ, लोक समूह-पूजित का पूजक होता है। तीर्थ सर्वलोकपूजित हो इसलिए त्रिभूवन-पूज्य होते हुए भी भगवान ने तीर्थ का बहुमान किया। दूसरी बात-'विनयमूलोधर्मः'-धर्म का मूल विनय है, इस तथ्य को भी भगवान द्वारा सर्वप्रथम स्वयं तीर्थ का विनय करके जगत् के समक्ष आदर्श प्रस्तुत किया गया है। भगवान की वाणी योजनगामिनी क्यों? आज तो भौतिक विज्ञान के कारण ध्वनिवर्द्धक यंत्र, फोन, केबल आदि के कारण दूर-सुदूर तक ध्वनि पहुँच जाती है, परन्तु तीर्थंकर भगवान को वाणी का अतिशय प्राप्त होने से उनकी वाणी सहज ही योजनगामिनी होती है। इसलिए योजन-परिमाण समवसरण में स्थित सभी संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के कर्ण-कहरों तक भगवान की वाणी पहर जाती है और उसे सुनकर सब अपनी-अपनी जिज्ञासा शान्त कर लेते हैं।' समवसरणस्थ तीर्थकर तो एक ही भाषा (अर्द्ध-मागधी) में धर्मोपदेश देते हैं, किन्तु वहाँ तो देव, मनुष्य और तिर्यच सभी कोटि के श्रोता होते हैं, वे उस भाषा में कैसे समझ जाते हैं ? इसका समाधान यह है कि-वर्षा का पानी एक ही प्रकार का होता है, किन्तु काली, सफेद, लाल, सुगन्धित आदि जिस-जिस प्रकार की मिट्टी होती है, उस रूप में, उस वर्ण में वह स्वतः परिणत हो जाता है, इसी प्रकार तीर्थंकर भगवान का वागतिशय विशेष से एक भाषा में धर्मोपदेश होते हुए भी सभी प्रकार के श्रोताओं की अपनी-अपनी भाषा में वह परिणत हो जाता है। वर्तमान युग में भी यह आश्चर्यजनक बात नहीं रही। संयुक्त राष्ट्र संघ (U. N.0.) जैसी बड़ी संस्थाओं के कार्यालय में विभिन्न देशों के विभिन्न भाषा-भाषी प्रतिनिधि आते हैं। उनमें से कोई वक्ता अपनी भाषा में बोलता है, किन्तु विभिन्न राष्ट्रों के . प्रतिनिधियों के सम्मुख रखे हुए यंत्र के कारण उनकी अपनी-अपनी भाषा में तत्काल अनुवाद हो जाता है। समवसरण में १२ प्रकार की परिषद् होती है। यदि भगवान की वाणी का उन श्रोताओं पर कोई भी प्रभाव न पड़े, वे सर्वविरति, देशविरति, सम्यक्त्व और श्रुत-सामायिक इन चार प्रकार की सामायिकों में से कोई भी सामायिक ग्रहण न करें तो विविध देवों द्वारा इस प्रकार के समवसरण की रचना का और भीड़ इकट्ठी करने का प्रयास निरर्थक ही सिद्ध होगा। इसका समाधान यह है कि समवसरण-रचना किये जाने पर तीर्थंकर भगवान तो अपना धर्मोपदेश करते ही हैं। उनके उपदेश का प्रभाव और संस्कार सबके मन-मस्तिष्क में एक बार तो जम ही जाता है, भले ही वे अभी किसी प्रकार का व्रत-नियम रूप सामायिक ग्रहण न करें। भविष्य में करेंगे ही। तीर्थंकरों की भाषा के पवित्र परमाणु शीघ्र प्रभावकारी होते हैं। इसलिए बहुत-सी बार तो उनकी वाणी खाली नहीं जाती। मनुष्य चार प्रकार की पूर्वोक्त सामायिक में से कोई न कोई सामायिक ग्रहण करते हैं। तिर्यंचगण सर्वविरति के सिवाय देशविरति, सम्यक्त्व और श्रुत-सामायिक ग्रहण करते हैं तथा देवगण तो नियमतः सम्यक्त्व सामायिक ग्रहण करते ही हैं। समवसरण में तीर्थंकर भगवान पहली पौरुषी (प्रथम प्रहर) तक व्याख्यान देते हैं। फिर अपनी धर्मकथा सम्पन्न करके उत्तर द्वार के प्रथम प्राकार से निकलकर द्वितीय प्राकार के अन्दर पूर्व दिशा में स्थित देवच्छन्दक में यथासुख विराजमान हो जाते हैं। समुद्र विमानभवन राशि निधूम १. आवश्यक नियुक्ति मलयगिरि वृत्ति, गा. ५६६, ५६७। २. वही, गा. ५६४। अग्नि परिशिष्ट १४ ( २२३ ) Appendix 14 मल्लि नमि अरिष्टनेमि पार्श्व महावीर Jain Educaton international 20TU_US For private personaruse only www.jainelibrary.org
SR No.002582
Book TitleSachitra Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1995
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size13 MB
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