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सिंह
गज
भगवान का जिस ग्राम, नगर आदि में समवसरण लगता है, भगवान के पदार्पण का प्रतिदिन समाचार सुनाने वाले कुछ वैतनिक और कुछ अवैतनिक सेवाभावी व्यक्तियों की नियुक्ति की जाती है। वे भगवान के पदार्पण की खबर प्रतिदिन देते हैं; अतः चक्रवर्तियों ने साढ़े बारह लाख स्वर्ण-मुद्राएँ वैतनिक लोगों को वृत्तिदान तथा अवैतनिक लोगों को प्रीतिदान के रूप में देने हेतु अपनी ओर से निकाली। इतनी ही चाँदी की मुद्राएँ उन्हीं नियुक्त-अनियुक्त लोगों को वितरित करने हेतु माण्डलिक राजाओं ने निकाली। इसी प्रकार कुबेर आदि देवों तथा ग्राम-नगर के जागीरदारों, जमींदारों और इभ्य श्रेष्ठियों ने भी अपनी-अपनी श्रद्धा-भक्ति और वैभव के अनुरूप उन्हीं दो प्रकार के लोगों को वृत्तिदान व प्रीतिदान के रूप में प्रदान की। देवगण धर्म प्रभावना क्यों और किस रूप में करते हैं?
भक्तिमान देव भी इसका अनुसरण करते हैं। वे इस धन का उपयोग भगवान के समवसरण क्षेत्र में आगमन का समाचार देने वाले व्यक्तियों के अतिरिक्त, समवसरण में सुरक्षा हेतु नियुक्त या स्वयं सेवाभाव से कार्य करने वाले लोगों, नये बने हुए श्रावकों के स्थिरीकरण में तथा अन्य संकटापन्न, विपन्न श्रावकों को प्रीतिदान के रूप में करते हैं। इसे वे भगवान की सेवा-भक्ति और पूजा मानते हैं। इस प्रकार अनेक प्रकार से ये लोग प्राणियों को सुखसाता उपनाकर सातावेदनीय कर्म का उपार्जन तो करते ही हैं, वे प्रीतिदान एवं वृत्तिदान के गुणों से युक्त बनते हैं, तथा ऐसे महानुभाव तीर्थ की प्रभावना भी करते हैं।२
प्रथम पौरुषी (प्रहर) पूर्ण होने तक भगवान की धर्मकथा पूर्ण हो जाती है। फिर द्वितीय पौरुषी (प्रहर) में गणधर धर्मकथा करते हैं। दूसरे प्रहर में भगवान धर्मकथा नहीं करते, गणधर करते हैं। गणधर कहाँ बैठकर धर्मकथा करते हैं ?
साध्वादि समुदाय रूप गण के धारक गणधर या तो राजा के द्वारा समवसरण में भेंट रूप में दिये हुए सिंहासन पर धर्मकथा करते हैं या फिर उसके अभाव में तीर्थंकर भगवान के पादपीठ पर बैठकर करते हैं।३
गणधर अपनी धर्मकथा में असंख्यात भवों में जो हुए तथा भविष्य में जो होगा अथवा श्रोताओं में से कोई किसी वस्तुतत्त्व के विषय में पूछे तो उसे यथातथ्यरूप में कहते हैं। गणधर इस प्रकार के समस्त प्रश्नों के उत्तर देने में समर्थ होने से किसी को भी यह कहने का अवकाश नहीं रहता है कि यह गणधर अवधिज्ञानादि के अतिशय से रहित है या यह छग्रस्थ (अल्पज्ञ) है।
इस प्रकार तीर्थंकरों के समवसरण में उनके तथा अन्य महान् आत्माओं के दर्शन, श्रवण, मनन, व्रतादि-ग्रहण, सम्यक्त्व-पुष्टि-शुद्धि तथा धर्म पुण्य एवं सेवाभक्ति के दुर्लभ अवसरों का महालाभ मिलता है।
(विशेष जानकारी हेतु सन्दर्भित ग्रंथ तथा अभिधान राजेन्द्र कोष भाग ७, 'समवसरण' शब्द देखें।)
वृषभ
लक्ष्मी
पुष्पमाला
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चन्द्र
१. आवश्यक नियुक्ति मलयगिरि वृत्ति, गा. ५८० से ५८३। २. वही, गा. ५८२, ५८३। ३. वही, गा. ५८९।
Illustrated Tirthankar Charitra
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सचित्र तीर्थकर चरित्र
विमल
अनन्त
- धर्म
शान्ति
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