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ऋषभ
अजित
अभिनन्दन
सुमति
पद्मप्रभ
सिंह
गज
वृषभ
आकर पहले से बैठे हुए हैं तो बाद में आने वाले अल्पऋद्धि वाले देव उन्हें प्रणाम करके अपने नियत स्थान पर बैठते हैं। पूर्व आदि चारों द्वारों पर क्रमशः सोम, यम, वरुण और कुबेर ये चार दिग्पाल द्वारपाल के रूप में खड़े रहते हैं।'
इस प्रकार बैठे हुए विविध प्रकार और विभिन्न कोटि के देवों और मनुष्यों में न तो परस्पर किसी प्रकार की यंत्रणा होती है, न एक-दूसरे के प्रति मात्सर्य होता है, न ही छोटे-बड़े में उत्कर्षताहीनता का भाव होता है, और न किसी प्रकार की विकथा होती है। भगवान के अतिशय के प्रभाव से परस्पर विरोधी जीवों में भी एक-दूसरे से किसी प्रकार का भय या त्रास नहीं होता। यह सब प्रथम प्राकार (परकोटा) की व्यवस्था है। द्वितीय व तृतीय प्राकार की व्यवस्था
द्वितीय प्राकार में सभी तिर्यंच (पंचेन्द्रिय) होते हैं और तृतीय प्राकार में सबके यान या वाहन खड़े होते हैं। प्राकार के बाहर खुली जगह में तिर्यंच भी होते हैं, मनुष्य भी और देव भी। ये कभी-कभी तीनों मिलकर समवसरण में प्रवेश करते और निकलते हैं। परन्तु भीड़ अधिक होते हुए भी बड़ी शान्ति से आवागमन जारी रहता है; किसी प्रकार की धक्का-मुक्की या तू-तू-मैं-मैं नहीं होती। समवसरण के दर्शन की महिमा
तीर्थंकर भगवान के समवसरण के दर्शन की इतनी महिमा है कि जिस श्रमण ने इस अभूतपूर्व समवसरण को पहले नहीं देखा, वह बारह योजन से पैदल चलकर इस समवसरण में आता है। समवसरण का ऐसा प्रभाव है कि बारह-बारह योजन दूर रहे हुए साधु को वहाँ आना ही चाहिए। यदि अवज्ञावश नहीं आता है तो उसके व्यवहार सम्यग्दर्शन में चल, मल और अगाढ़ दोष की सम्भावना होने से उसकी शुद्धि के लिए चार लघु प्रायश्चित्त (चार उपवास) का विधान है।३
समवसरण में विराजमान भगवान का रूप इतना अतिशय सुन्दर होता है कि सभी देव मिलकर वैसा सुन्दर रूप निर्माण करने की सम्पूर्ण वैक्रिय-शक्ति से यदि अंगुष्ठ-प्रमाण रूप का निर्माण करें तो भी तीर्थंकर भगवान के चरण के अँगूठे से बढ़कर शोभायमान नहीं होता।
तीर्थंकर भगवान के रूप से अनन्तगुणाहीन रूप गणधरों का होता है। गणधरों से आहारक शरीरी का रूप अनन्तगणाहीन होता है। आहारकशरीरी मुनियों से अनुत्तर वैमानिक, नवग्रैवेयक, अच्युत, आरण, प्राणत. आनत. सहस्रार, महाशुक्र, लान्तक, ब्रह्मलोक, माहेन्द्र, सनत्कुमार, ईशान, सौधर्म, भवनवासी, ज्योतिष्क, वाणव्यन्तर देवों का तथा चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, माण्डलिक नृपों का रूप अनन्तर-अनन्तर क्रमशः अनन्तगुणाहीन होता है। शेष राजाओं तथा जनपद के लोगों का रूप क्रमशः षट्स्थानपतित होता है।
समवसरण में भगवान के तीर्थंकर-नाम-कर्म के उदयवश अनुत्तर उत्कृष्ट रूप होने का प्रयोजन आचार्यों के मतानुसार यह है कि पुण्य के उदय से प्रशस्त उत्कृष्ट रूप होता है तो उसे जान/देखकर समवसरण में समागत श्रोता भी धर्माचरण में प्रवृत्त होते हैं तथा श्रोताओं को भी यह बोध प्राप्त होता है कि इतने उत्कृष्ट रूपवान् व्यक्ति भी धर्माचरण करते हैं तो हम जो इतने रूपवान् नहीं हैं, उन्हें तो अवश्य करना चाहिए। रूपवान् के वचन भी उपादेय होते हैं। श्रोताओं में जो रूपमद में आसक्त होते हैं, भगवान का उत्कृष्ट रूप देखकर उनका अहंकार भी गल जाता है। इन सब कारणों से भगवान का रूप प्रशंसनीय है।५
लक्ष्मी
पुष्पमाला
चन्द्र
१. देखें, समवसरणस्तव, गा. १९॥ २. आवश्यक नियुक्ति मलयगिरि वृत्ति, गा. ५६१ से ५६३। ३. वही, गा. ५६८।
वही. गा. ५६९, ५७०। षट्स्थानपतित (छट्ठाणवडिया) का अर्थ है-क्रमशः अनन्त भागहीन, असंख्येय भागहीन, संख्येय भागहीन या
संख्येय गुणहीन, असंख्येयहीन या अनन्तगुणहीन। ५. वही, गा. ५७४।
Illustrated Tirthankar Charitra
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सचित्र तीर्थंकर चरित्र
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