________________
पद्य
समवसरण में तीर्थंकरादि का प्रवेश व बैठने की मर्यादा
इस प्रकार समवसरण की रचना सम्पन्न हो जाने पर सूर्योदय होने पर प्रथम पौरुषी में अथवा पिछली पौरुषी आ रही हो, उस समय तीर्थंकर भगवान पूर्व द्वार से समवसरण में प्रवेश करते हैं। वे देवपरिकल्पित दो सहस्रदल कमल पर पैर रखते हुए चलते हैं। भगवान के चलने के समय आगे और पीछे उस समय सात-सात पद्म स्थापित हो जाते हैं। तत्पश्चात् भगवान पूर्व द्वार से प्रविष्ट होकर चैत्य वृक्ष को. आदक्षिणा-प्रदक्षिणा करके पूर्व दिशा में मुख करके सिंहासन पर विराजमान हो जाते हैं।'
ध्वजा शेष तीन दिशाओं में सिंहासनादि से युक्त भगवान की आकृति जैसी ही सुन्दर देव-निर्मित प्रतिकृतियाँ स्थापित हो जाती हैं। भगवान चारों तरफ दर्शकों को दिखाई देते हैं।
भगवान के पादमूल (चरणों के समक्ष) में ज्येष्ठ गणधर प्रणाम करके बैठ जाते हैं। वे ज्येष्ठ गणधर या अन्य गणधर दक्षिण-पूर्व विदिशा में भगवान के न अति दूर न अति निकट वन्दन करके बैठते हैं। शेष गणधर भगवान को वन्दना करके उनके आगे और पार्श्व भाग में बैठ जाते हैं।
तदनन्तर केवली आदि अतिशय ज्ञानी मुनि पूर्व द्वार से प्रवेश करके भगवान की तीन बार प्रदक्षिणा करके 'नमस्तीर्थाय' कहकर प्रथम गणधर और शेष गणधरों के पीछे बैठ जाते हैं तथा जो बाकी के मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वधर, त्रयोदशपूर्वधर, यावत् दशपूर्वधर, खेलौषधि आदि लब्धिधारी, अतिशायी मुनिवर होते हैं, वे भी पूर्व द्वार से प्रविष्ट होकर भगवान को तीन बार प्रदक्षिणा व वन्दना करके 'नमस्तीर्थाय', 'प्रथमगणधराय नमः', 'केवलिभ्यो नमः', 'अतिशायिभ्यः साधुभ्यो नमः', इस प्रकार बोलकर अतिशायी साधुओं के पीछे बैठ जाते हैं। . इसके पश्चात् श्रमणियाँ पूर्व द्वार से प्रविष्ट होकर तीर्थंकर भगवान को तीन बार प्रदक्षिणा व वन्दना करके तीर्थ, |
सरोवर केवली, अतिशायी श्रमण तथा शेष साधुओं को नमन करके वैमानिक देवों के पीछे खड़ी रहती हैं, बैठती नहीं हैं। इसके पश्चात् वैमानिक देवियाँ भी पूर्व द्वार से प्रविष्ट होकर भगवान को प्रदक्षिणा एवं वन्दना करके तथा तीर्थ, केवलज्ञानियों, अतिशायी एवं निरतिशायी साधुओं को नमन करके निरतिशायी साधुओं के पीछे खड़ी रहती हैं। इसी तरह भवनपति देवियाँ, व्यन्तर, देवियाँ और ज्योतिष्क देवियाँ भी दक्षिण द्वार से प्रविष्ट होकरं तीर्थंकर प्रभु को तीन वार प्रदक्षिणा व वन्दना करके दक्षिण-पश्चिम दिशा (नैऋत्यकोण) में क्रमशः एक के पीछे दूसरी, तीसरी खड़ी रहती हैं।
तत्पश्चात् पूर्वोक्त क्रम से तीर्थंकर, तीर्थ, गणधर से लेकर निरतिशायी साधुओं तक को नमन करती हुई वैमानिक, भवनपति, ज्योतिष्क एवं व्यन्तर देवों की देवियाँ अपने-अपने स्थान पर चली जाती हैं।
तत्पश्चात् पश्चिम द्वार से भवनपति, ज्योतिष्क और व्यन्तरदेव प्रवेश करके भगवान को प्रदक्षिणा और वन्दना करके तीर्थंकर, केवली, अतिशायी और शेष साधुओं को नमस्कार हो, यह कहकर अपने नियत स्थान पर
विमानउत्तर-पश्चिम दिशा में (भवनपति ज्योतिष्क और वाणव्यन्तर) क्रम से एक के पीछे एक बैठ जाते हैं तथा उत्तर द्वार से
भवन वैमानिक देव, मनुष्य पुरुष और स्त्रियाँ प्रवेश करके भगवान को तीन बार प्रदक्षिणा करके पूर्ववत् तीर्थंकरादि को वन्दन-नमस्कार करके उत्तर-पूर्व दिशा में अपने-अपने नियत स्थान पर क्रमपूर्वक बैठ जाते हैं। आगे वैमानिक देव बैठते हैं, उनके पीछे मनुष्य पुरुष, फिर उनके पीछे स्त्रियाँ। जो परिवार जिसकी निश्राय में आता है, वह उस परिवार के पास ही बैठता है, अन्यत्र नहीं।२ आशय यह है कि इस प्रकार प्रत्येक दिशा और विदिशा में एक-एक त्रिक (तीन-तीन का ग्रुप) के लोग बैठते हैं।
राशि वहाँ इस प्रकार बैटने वाले देवों और मनुष्यों की मर्यादा यह है कि यदि अल्पऋद्धि वाले देव भगवान के समवसरण में पहले बैठे हुए हैं तो वे आने वाले महर्द्धिक देवों को प्रणाम करते हैं। अगर महर्द्धिक देव समवसरण में
समुद्र
निधूम
१. देखें, आवश्यक नियुक्ति मलयगिरि वृत्ति, गा. ५४४ से ५५२। २. आवश्यक नियुक्ति मलयगिरि वृत्ति, गा. ५५३ से ५६०। परिशिष्ट १४
( २२१ )
अग्नि
Appendix 14
Jain Education International 20TU_US
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org