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ऋषभ
अजित
सम्भव
अभिनन्दन
सुमति
पद्मप्रभ
-
सिंह
गज
जिज्ञासा उठती है, समवसरण क्या है? उसकी रचना कैसी होती है? उसकी रचना कौन करते हैं? तीर्थकर भगवान समवसरण में कब और कितने समय तक उपदेश देते हैं ? आदि विषयों का सरस सुन्दर समाधान हमें आगमों और उनकी नियुक्ति, वृत्ति एवं भाष्यों के आधार पर प्राप्त होता है।
समवसरण तीर्थंकर भगवन्तों की धर्म-परिषद् होती है। समवसरण का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है "सम्यक् रूप से एक जगह गमन अर्थात् मिलन जहाँ हो वह समवसरण है। अथवा नाना परिणाम वाले जीव जहाँ सम्यक् प्रकार से आकर एकत्रित होते हैं, वह समवसरण है।" आशय यह है कि तीर्थंकर भगवान की धर्मसभा में विभिन्न कोटि के भव्य आत्माओं-विशेषतः मनुष्यों, तिर्यंचों और देवों का दर्शन-श्रवणादि के लिए एकत्र होना समवसरण है। वर्तमान में लोकसभा में जैसे विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधि एकत्र होकर विभिन्न राज्यों की समस्याओं के विषय में विचार-विमर्श करते हैं, निर्णय लेते हैं, उससे भी अनेक गुणी विशाल और विभिन्न कोटि के जीवों की धर्मसभा होती है-समवसरण। समवसरण की देवादिकृत विशिष्ट रचना
जिस ग्राम, नगर या क्षेत्र में अभूतपूर्व समवसरण की रचना करनी होती है, वहाँ पहले महर्द्धिक देव अभियोग्य देवों को सूचित करते हैं, तब वे अभियोग्य देव वहाँ एक योजन परिमण्डल में व्याप्त भूमि को संवर्तक वायु से साफ व समतल करके अचित्त गन्धोदकपूर्ण बादलों से सुगन्धित जलवृष्टि करते हैं, तत्पश्चात् उस भूमि को सुगन्धित बनाने के लिए अचित्त फूलों की वर्षा करते हैं। फिर चन्द्रकान्त, इन्द्रनील आदि रत्नों से योजनपरिमित भूमि को चित्रित कर देते हैं। तत्पश्चात् व्यन्तरदेव चारों दिशाओं में मणि, कनक और रनों से जटित (मुख्य द्वार) बनाते हैं। उन पर छत्र, स्तम्भपुत्तलिका, मकर-मुख ध्वज तथा स्वस्तिकादि चिन्हों की रचना करते हैं।
तत्पश्चात सुरेन्द्रगण वैक्रिय-शक्ति से विभिन्न रत्नों से निर्मित तथा मणि, काञ्चनयुक्त कंगूरों से सुशोभित तीन श्रेष्ठ प्राकार (परकोटे) बनाते हैं। इन तीनों में से बाह्य प्राकार चाँदी का होता है, जो भवनपतियों के इन्द्र बनाते हैं। मध्य का
होता है, जो ज्योतिष्क देवेन्द्र बनाते हैं और अन्तरंग प्राकार रत्नमय होता है जिसकी रचना वैमानिक देवेन्द्र करते हैं। इन तीनों प्राकारों पर कंगूरे (कपिशीर्षक) भी पूर्ववत् भवनपतीन्द्र, ज्योतिष्केन्द्र तथा वैमानिकेन्द्र क्रमशः स्वर्ण-रत्न-मणियों के बनाते हैं तथा सर्वरत्नमय द्वार भवनपतिदेव बनाते हैं। तदनन्तर चारों ओर सभी दिशाओं में काला अगर, कुन्दरुक आदि से मिश्रित मनोरम गन्ध से युक्त धूपघटिका व्यन्तरदेव स्थापित करते हैं।
यह सब रचना करने के बाद ईशानदेव रलमय आभ्यन्तर प्राकार के बहुमध्य देश भाग में भगवान के प्रमाण से बारह गुणा बड़ा श्रेष्ठ अशोक वृक्ष तथा उसके नीचे सर्वरत्नमय पीठ बनाते हैं। पीठ के ऊपर चैत्य वृक्ष फिर उसके नीचे देवच्छन्दक का निर्माण करते हैं। उसके आभ्यन्तर में पादपीठ सहित स्फटिकमय सिंहासन का निर्माण करते हैं। उस पर क्रमशः ऊपर-ऊपर तीन छत्र होते है। सिंहासन के दोनों पार्श्व में बलीन्द्र और चामरदेव चामर हाथ में लिए खड़े रहते हैं। व्यन्तरदेव सिंहासन के आगे कुछ दूरी पर स्वर्ण-कमल पर धर्मचक्र स्थापित करते हैं। तीर्थंकर प्रभु के चरणों में आने वाले सभी देव उत्कृष्ट हर्ष-उल्लास से प्रेरित होकर सिंहनाद करते हैं।
ऐसा नियम है कि जिस समवसरण में सभी देवेन्द्र आते हैं, वहाँ इसी प्रकार समवसरण की रचना उक्त प्रकार से पृथक्-पृथक् देव करते हैं, किन्तु जहाँ विशिष्ट ऋद्धिमान, इन्द्र, सामानिक आदि आते हैं, वहाँ प्राकारादि की रचना वे ही करते हैं, यदि वे नहीं आते हैं तो भवनपति आदि दूसरे देव समवसरण की रचना करते भी हैं, नहीं भी करते।
लक्ष्मी
पुष्पमाला
चन्द्र
१. समवसरण से सम्बन्धित वर्णन आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरि बृत्ति, बृहत्कल्पभाष्य तथा समवसरण कल्प में हैं। २. (अ) सृ गती सम्यगेकत्र गमन मिलन समवसरणम्-ओघनियुक्ति। (आ) समवसरन्ति नाना परिणामा जीवाः येषु तानि समवसरणानि
-भगवती, श. ३०, उ. १। यत्र भगवान धर्ममाचष्टे तत्र समवसरणम्-अभिधान, भा. ७, पृ. ४६६। | ३. 'पंचाशक' तथा 'समवसरणस्तव' में समवसरण भूमि को शुद्ध, सुगन्धित एवं समतल करने हेतु वायुकुमार, मेघकुमार एवं क्रतुकुमार आदि देव प्रवृत्त होते हैं, ऐसा उल्लेख है।
___ -पंचाशक. गा. १३, समवसरणस्तव, गा. ३ Illustrated Tirthankar Charitra
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सचित्र तीर्थंकर चरित्र
सूर्य
विमल
अनन्त
धर्म
शान्ति
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