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सिंह
गज
वृषभ
लक्ष्मी
पुष्पमाला
चन्द्र
सूर्य
ऋषभ
विमल
अजित
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"सव्वं मे पावकम्मं अकरणिञ्ज" इस संकल्प के साथ सम्पूर्ण सावध योग का त्यागकर दीक्षित होते ही
"
मनः पर्यव ज्ञान-मन के स्थूल और सूक्ष्म भावों को प्रत्यक्ष जान सकने की क्षमता प्राप्त हो जाती है।
• दीक्षा लेते समय तीर्थकर "नमो सिद्धाणं" कहकर केवल सिद्धों को वन्दना करते हैं।
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सम्भव
दीक्षित होते समय तीर्थंकर पंचमुष्ठि केश लुंचन करते हैं और केश इन्द्र को प्रदान करते हैं। इन्द्र पूज्यभाव के साथ भगवान के केशों को रत्नमय पिटारे में रखते हैं और आदरपूर्वक क्षीर सागर में उनका क्षेपण करते हैं। • सभी तीर्थंकर दीक्षा लेने के बाद केवलज्ञान की प्राप्ति तक मौन रहते हैं तीर्थंकर केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद ही प्रवचन करते हैं।
• साधनाकाल में तीर्थंकर एकाकी निसंगभाव से अप्रतिबद्धता के साथ विचरण करते हैं।
छद्मावस्था में न तो वे किसी को उपदेश देते हैं और न ही शिष्य बनाते हैं।
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ये चौंतीस अतिशय एवं पैंतीस वचनातिशय से सम्पन्न होते हैं।
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उनमें अठारह दोषों का पूर्णतः अभाव हो जाता हैं। अठारह दोष निम्न प्रकार हैं
अभिनन्दन
साधना द्वारा जब चार घनघाति कर्मों का क्षय कर सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्वशक्तिमान एवं धर्मोपदेशक गुणों से सम्पन्न होते हैं तब अरिहन्त तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है।
अन्तराया दान-लाभ वीर्य भोगोपभोगाः । हास्यो रत्यरती भीति र्जुगुप्सा शोक एव च ॥
Illustrated Tirthankar Charitra
अनन्त
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सुमति
कामो मिथ्यात्वमज्ञानं निद्रा चाविरति स्तथा । रागो द्वेषश्च नो दोषा स्तेषा मष्टादशाप्यमी ॥
१५. पाँच अन्तराय ( दानान्तराय, लाभान्तराय भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय), ६. हास्य, ७. रति, ८. अरति, ९. भीति ( सब प्रकार के भय), १०. जुगुप्सा, ११. शोक, १२. काम, १३. मिथ्यात्व, १४. अज्ञान, १५. निद्रा, १६. अविरति, १७. राग, १८ द्वेष ।
दूसरे प्रकार से ये १८ दोष माने जाते हैं
१. मिध्यात्व, २. अज्ञान, ३. मद, ४. क्रोध, ५. माया, ६. लोभ, ७. रति, ८. अरति, ९. निद्रा, १०. शोक, ११ अलीक, १२. चौर्य, १३. मत्सरता, १४, भय, १५. हिंसा, १६. प्रेम, १७. क्रीड़ा, १८. हास्य ।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभ पूर्व भव में चतुर्दशपूर्वी थे। शेष तेईस तीर्थकर पूर्व भव में ग्यारह अंग के ज्ञाता थे। तीर्थकर पद प्राप्ति के साथ ही इन्द्र समवसरण की रचना करते हैं। समवसरण में भगवान अर्द्धमागधी भाषा में जन-प्रतिबोधन की भावना से देशना देते हैं। इस समवसरण में मनुष्य, देव, तिर्यञ्च सभी उपस्थित होते हैं। भगवान की इस प्रथम देशना से कोई न कोई जीव प्रतिबोधित होकर त्याग-प्रत्याख्यान अवश्य करता है। समवसरण में भगवान पद्मासन में विराजते हैं।
पद्मप्रभ
• तीर्थंकर मुनिसुव्रत और अरिष्टनेमि, ये दोनों हरिवंश में उत्पन्न हुए और शेष सभी इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न हुए।
● सबसे अधिक उम्र में आदिनाथ भगवान को ८४ लाख वर्ष पूर्व की अवस्था में वैराग्य हुआ और सबसे कम उम्र में भगवान पार्श्वनाथ एवं महावीर को ३० वर्ष की अवस्था में वैराग्य हुआ।
● सबसे अधिक ऊँचाई भगवान ऋषम की पाँच सौ धनुष की थी सबसे कम भगवान महावीर की सात हाथ की ऊँचाई थी।
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शान्ति
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धर्म
कुन्थु
सचित्र तीर्थंकर चरित्र
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