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________________ सुपार्श्व चन्द्रप्रभ सुविधि शीतल ) श्रेयांस वासुपूज्य ध्वजा वासुपूज्य, मल्ली, नमि, पार्श्व और वर्द्धमान ने कुमारपद एवं प्रथम वय में संयमरूप निधि का वरण किया। शेष उन्नीस अर्हतों ने राजपद पर अभिषिक्त हो तीसरी वय में दीक्षा स्वीकार की। (जिस युग में सामान्यतः जितना आयुष्य होता है .उसके तीन समान भाग तीन वय के रूप में निरूपित हैं।) ऋषभ से श्रेयांस प्रभु तक सभी तीर्थंकरों ने केवल विवाह ही नहीं किया, राज्य संचालन भी किया। वासुपूज्य ने कुमारावस्था में संयम ग्रहण कर इस परम्परा को बदला। १९वें और २२वें तीर्थंकर अविवाहित रहे। भगवान ऋषभ ने विनीता नगरी से, अरिष्टनेमि ने द्वारका से और शेष तीर्थंकरों ने अपनी-अपनी जन्म-भूमि से निष्क्रमण किया था। भगवान महावीर अकेले प्रव्रजित हुए थे। पार्श्वनाथ और मल्लीनाथ तीन सौ-तीन सौ पुरुषों के साथ और भगवान वासुपूज्य छह सौ पुरुषों के साथ प्रव्रजित हुए थे। भगवान ऋषभ चार हजार व्यक्तियों के साथ प्रव्रजित हुए थे और शेष तीर्थंकर हजार-हजार व्यक्तियों के साथ प्रव्रजित हुए थे। • तीर्थंकर श्रेयांस, मल्ली, मनिसव्रत, अरिष्टनेमि एवं पार्श्व इन पाँचों ने पूर्वाह्न में एवं शेष उन्नीस ने पिछले अपराह्न में दीक्षा ली थी। सुमति ने भोजन करके दीक्षा ली, मल्ली, पार्श्व ने तीन दिन की तपस्या में, वासपूज्य ने उपवास के दिन और शेष बीस तीर्थंकरों ने बेले के दिन संयम लिया था। तीर्थंकर ऋषभ ने दीक्षा ग्रहण करने के बाद प्रथम भिक्षा एक वर्ष पश्चात् प्राप्त की थी। शेष सभी तीर्थंकरों ने प्रथम भिक्षा दूसरे दिन प्राप्त की थी। तीर्थंकर ऋषभ को प्रथम भिक्षा में इक्षुरस मिला। शेष तीर्थंकरों को अमृतरस तुल्य परमान्न (क्षीर) प्राप्त पद्म सरोवर हुआ था। समुद्र विमानभवन सभी जिनवरों को जहाँ प्रथम भिक्षा प्राप्त हुई वहाँ शरीर परिमाण सुवर्ण की दृष्टि हुई थी। भरत और ऐरावत क्षेत्र में प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर को छोड़कर मध्य के बावीस अर्हत् भगवान चातुर्याम (चार महाव्रत रूप) धर्म की प्ररूपणा करते हैं, यथा-१. सब प्रकार की हिंसा से निवृत्ति, २. सब प्रकार के झूट से निवृत्ति, ३. सब प्रकार के अदत्तादान से निवृत्ति, ४. सब प्रकार के बाह्य पदार्थों के आदान से निवृत्ति। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर पंच महाव्रत की प्ररूपणा करते हैं। भगवान महावीर का अशोक वृक्ष बत्तीस धनुष ऊँचा, नित्य ऋतु और शाल वृक्ष से अवच्छन्न था। जिनवर ऋपभ का चैत्य वृक्ष उनके शरीर से तीन गुणा ऊँचा था। शेष तीर्थंकरों के चैत्य वृक्ष उनके शरीर से १२ गुने ऊँचे थे। दीक्षा लेने के बाद भगवान ऋषभनाथ को एक हजार वर्ष में और मल्लीनाथ जी को डेढ़ प्रहर में केवलज्ञान प्राप्त हुआ। ऋषभ का समवसरण बारह योजन के विस्तार का था। आगे के तीर्थंकरों का नमिनाथ भगवान तक दो-दो कोस अर्थात् आधा-आधा योजन कम होता गया। तेईसवें पार्श्वनाथ भगवान का समवसरण डेढ़ योजन का और तीर्थंकर महावीर का समवसरण एक योजन के विस्तार का था। यह प्रमाण भरत ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों का अवसर्पिणी काल का है। उत्सर्पिणी काल में इससे विपरीत प्रमाण समझना चाहिए। विदेह क्षेत्र में समस्त तीर्थंकरों का समवसरण समान विस्तार वाला अर्थात बारह योजन प्रमाण होता है। सभी समवसरण इन्दु नीलमणि से शोभायमान होते हैं। • सबसे अधिक गणधर भगवान सुमतिनाथ के एक सौ थे और सबसे कम भगवान पार्श्वनाथ के दस हुए थे। • योग निरोध होने के बाद तीर्थंकर समवसरण में बोलते नहीं हैं। परिशिष्ट १ ( १७३ ) Appendix 1 राशि निधूम अग्नि Jain Education international 20TUMUS orrivale a Personaruse Only www.jainelibrary.org
SR No.002582
Book TitleSachitra Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1995
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size13 MB
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