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________________ सुपार्श्व चन्द्रप्रभ ' ) सुविधि शीतल श्रेयांस वासुपूज्य पारीशष्ट १ तीर्थंकर-जीवन : महत्त्वपूर्ण तथ्य ध्वजा पद्म सरोवर समुद्र • जम्बूद्वीप के दक्षिण भाग में भरत क्षेत्र, उत्तर भाग में ऐरावत क्षेत्र और मध्य भाग में महाविदेह क्षेत्र है। भरत एवं ऐरावत क्षेत्र में प्रत्येक उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल में २४ तीर्थकर होते हैं। • महाविदेह क्षेत्र में हमेशा तीर्थंकरों की विद्यमानता रहती है। जिस भव में तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हुआ है उससे तीसरे भव में तीर्थंकर प्रकृति के सत्वयुक्त जीवों के मोक्ष जाने का नियम है। • होनहार तीर्थंकर के गर्भ-कल्याणक के छह माह पूर्व ही विशेष प्रभाव द्रष्टव्य होने लगते हैं। भरत तथा ऐरावत क्षेत्र में तीर्थंकर पंच-कल्याणक वाले होते हैं। • इस अवसर्पिणी काल में सभी तीर्थंकर स्वर्ग से च्यवन कर भरत क्षेत्र में आये हैं। स्वर्ग से च्यवन करने से छह माह पूर्व सभी सुर आदि देव-देवियों को उनके प्रति विशेष आदर भाव जागता है। वे उन्हें प्रणाम करते हैं। नरक से आने वाले तीर्थंकर जीवों की पर्याय के परित्याग से छह माह शेष रहने पर नरक में देव जाकर असुरादि कृत उपसर्गों का निवारण करते हैं। गर्भावस्था में ही तीर्थंकर का जीव तीन ज्ञान-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान के साथ आता है। प्रसंग आने पर इनका उपयोग भी करता है। तीर्थकर माता का दूध नहीं पीते। इन्द्र आदर सहित भगवान को स्नान कराने, वस्त्राभूषण पहनाने, दूध पिलाने, शरीर के संस्कार करने और खिलाने के कार्य करने हेतु अनेक देवियों को धाय बनाकर नियुक्त करते हैं। तीर्थंकरों के जन्म के समय ५६ दिक्कुमारी आदि देवियाँ आकर जन्म-महोत्सव करती हैं। ६४ इन्द्र आदि देव अपने जीत (परम्परागत) व्यवहार के कारण तीर्थंकरों को मेरु पर्वत के पाण्डुकवन में ले जाकर उमंग और आनन्द के साथ जन्माभिषेक करते हैं। तीर्थंकरों में जन्मजात चार विशेषतायें (अतिशय) होती हैं१. लोकोत्तर अदभुत स्वरूप वाले शरीर में पसीना, मैल या रोग नहीं होता। २. उनका श्वासोच्छ्वास सुगन्धमय होता है। ३. अनन्त वात्सल्यमय होने के कारण उनके रुधिर के रक्त कण (रेड ब्लड कार्पसल्स) श्वेत कण में परिवर्तित हो जाने के कारण रक्त (रुधिर) व माँस का रंग दूध जैसा सफेद हो जाता है। ४. उनका आहार, नीहार (मल-विसर्जन क्रिया) सामान्य मानव के चर्मचक्षुओं द्वारा दृष्टिगोचर नहीं होता। यौवन में प्रवेश करने पर यदि भोगावली कर्म का उदय होता है तो उत्तम कुल की श्रेष्ठ नारी के साथ विवाह होता है। मगर वे गृहस्थ जीवन में भी भोगों के प्रति अनासक्त रहते हैं। • दीक्षा से पूर्व एक वर्ष तक प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण-मुद्राओं का दान देते हैं। इस प्रकार वे वर्ष-भर में कुल तीन अरब अठासी करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं का दान करते हैं। ( १७१ ) Appendix 1 विमानभवन रत्न राशि मन निर्धूम अग्नि परिशिष्ट १ NA मल्लि मुनिसुव्रत नमि अरिष्टनेमि । महावीर Jain Education International 2010203 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002582
Book TitleSachitra Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1995
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size13 MB
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