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चन्द्रप्रभ
सुपाव
श्रेयांस
शीतल
विधि
वासुपूज्य
ध्वजा
पदा
पंचमी को शिवादेवी ने भाग्यशाली पुत्र को जन्म दिया। शाश्वत नियमानुसार तीर्थंकर का जन्म होने पर छप्पन दिशा कुमारियाँ आई, सूतिका कर्म आदि करके भगवान का जन्म उत्सव मनाया। (चित्र AN-1)
बारहवें दिन जन्मोत्सव के निमित्त प्रीतिभोज करके महाराज समुद्रविजय ने बताया-“गर्भकाल में माता ने अरिष्ट रत्नमय चक्रनेमि (रत्नों का चक्र) का दर्शन किया इसलिए बालक का नाम 'अरिष्टनेमि' रखा जाता है।"
भगवान ऋषभदेव आदि २२ तीर्थंकरों का जन्म इक्ष्वाकुवंश में हुआ। किन्तु बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत का जन्म हरिवंश में हुआ। उन्हीं के युग में हरिवंश में प्रसिद्ध सत्यवादी राजा वसु (नारद पर्वत की कथा का पात्र) हुआ। युगों बाद इसी हरिवंश में सौरी नाम के प्रतापी राजा हुए, जिन्होंने सौरीपुर नगर
गर बसाया। सौरी राजा के दो पुत्र थे-अंधकवृष्णि तथा भोगवृष्णि। अंधकवृष्णि के दस पुत्र हुए जिनमें समुद्रविजय सबसे बड़े थे | और सबसे छोटे थे-वसुदेव। __पूर्व-जन्म की तपस्या के प्रभाव से वसुदेव जी का व्यक्तित्व भी बड़ा सम्मोहक था। वसुदेव जी की बड़ी रानी रोहिणी के एक पुत्र थे-बलराम (पग्र) और छोटी रानी देवकी के पुत्र थे-वासुदेव श्रीकृष्ण। जो क्रमशः नवें बलदेव व नवें वासुदेव हुए।
कंस के क्रूर कुचक्र, अत्याचारों व प्रतिवासुदेव जरासंध की दुष्ट शासन प्रणाली के कारण उन दिनों भारत का मध्यवर्ती भू-भाग युद्ध व आपसी षड्यंत्रों का अड्डा बन चुका था। इस रात-दिन के संघर्ष व
सरोवर अशान्ति से दूर रहकर शान्तिपूर्वक जीवन-यापन करने की दृष्टि से तथा निमित्त ज्ञानी की भविष्यवाणी के कारण राजा समुद्रविजय, वसुदेव, उग्रसेन, श्रीकृष्ण आदि यादववंशियों ने मथुरा, सौरीपुर आदि को छोड़कर दक्षिण-पश्चिम समुद्र की ओर प्रस्थान कर दिया और सौराष्ट्र प्रदेश में रैवतक पर्वत (गिरनार) के पास आकर विश्राम लिया। यहाँ पर सत्यभामा ने दो यगल पत्रों को जन्म दिया। देववाणी के आधार पर वासदेव
समुद्र श्रीकृष्ण ने यहीं पर विशाल द्वारका नगरी का निर्माण करवाया जो अपने वैभव एवं स्थापत्य कला की दृष्टि से स्वर्गपुरी के समान अद्वितीय थी और शत्रुओं के लिए अजेय एवं दुर्भेद्य थी। अरिष्टनेमि का अद्वितीय बल-पराक्रम
एक बार कुमार अरिष्टनेमि यादव कुमारों के साथ घूमते हुए वासुदेव श्रीकृष्ण की आयुधशाला में पहुँच गये। वहाँ पर वासुदेव का सुदर्शन चक्र, शाङग, धनुष और पाँचजन्य शंख रखा हुआ था। कुमार अरिष्टनेमि भवन के मन में कुतूहल उठा, उन्होंने पाँचजन्य शंख उठाकर बजा दिया। यद्यपि कुमार अरष्टिनेमि ने शंख को धीमे से बजाया था फिर भी उससे जो ध्वनि विस्फोट हुआ, वह इतना प्रचंड था कि नगर के भव्य भवनों की दीवारें भी थर्राने लगी और पर्वतमालाएँ प्रतिध्वनि से गूंजने लग गईं। अचानक यह कोलाहल सुनकर वासुदेव श्रीकृष्ण दौड़कर आयुधशाला में आये और अपने लघु बंधु कुमार अरिष्टनेमि को बड़ी सहजता के साथ वासुदेव के दिव्य आयुधों के साथ क्रीड़ा करते देखकर स्तब्ध रह गये। वासुदेव ने पूछा-"प्रिय भ्रात ! क्या
राशि यह पाँचजन्य शंख भी आपने ही बजाया?"
अरिष्टनेमि ने सहजतापूर्वक कहा-“हाँ, भैया ! इसे देखकर बजाने का मन हो गया।" श्रीकृष्ण एक ओर अपने भाई के अद्वितीय बल पराक्रम से प्रसन्न थे, तो दूसरी ओर अत्यन्त
निधूम आश्चर्यचकित भी। क्योंकि उनकी यह धारणा थी कि संसार में उनके समान दूसरा कोई योद्धा और पराक्रमी
अग्नि भगवान अरिष्टनेमि
Bhagavan Arishtanemi
विमान
मल्लि
नमि
) मुनिसुव्रत fion Internationa201203
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