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________________ [ ३४४ ] सम्यगहष्टि ही है। जिनेश्वर ने वस्तु स्वरूप जाना है, वह वैसा ही है' ऐसी मैं श्रद्धा रखता है ऐसी भावना करने वाले भव्य के सम्यक्त्व की हानि कैसी होगी अर्थात शंका नाम के अतिचार से उसका सम्बगदर्शन समल होगा परन्तु नष्ट न होगा। बुरे कर्मों के अनुष्ठान से संपत्ति का नाश अवश्यम्भावी है। नशा का सेवन चौरस्ते की सैर, समाज ( नाच-गान ) का सेवन, जूआ खेलना, दुष्ट मित्रों को संगति तथा आलस्य में फंसना-ये छओं संपत्ति के नाश के कारण हैं। बुद्ध धर्म के तीन महनीय तत्व हैं -शील, समाधि और प्रशा, अष्टांगिक मार्ग के प्रतीक । शौल से तात्पर्य सात्त्विक कार्यों से है। बुद्ध के दोनों प्रकार के शिष्य थे- गृहत्यागी प्रवर्जित भिक्षु तथा गृहसेवी गृहस्थ । कतिपय कर्म इन दोनों प्रकार के बुद्धानुयायियों के लिए समभावेन मान्य हैं । जैसे-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और मद्य का निषेध-ये 'पंचशील' कहलाते हैं और इनका अनुष्ठान प्रत्येक बौद्ध के लिए विहित है । पातंजल योग में कहा है मैत्री करुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम् ॥३३॥ ___अर्थात् सुखी, दु:खी, पुण्यात्मा और पापियों के विषय में यथाक्रम मित्रता, दया, हर्ष और उपेक्षा की भावना के अनुष्ठान से चित्त प्रसन्न और निर्मल होता है । प्राणीमात्र सद्भावना के अधिकारी हैं। धीर विद्वान-पुरुष लोहे, लकड़ी तथा रस्सी के बंधन को दृढ़ बंधन नहीं मानते । वस्तुतः दृढ बंधन है-सारवान् पदार्थों में रक्त होना या मणि, कुंडल, पुत्र तथा स्त्री में इच्छा का होना। ३ मिथ्यात्वी इन बंधनों से छुटने का अभ्यास करे । मज्झिमनिकाय में कहा है “यही तृष्णा जगत के समस्त विद्रोह और विरोध को जननी है। xxx तृष्णा ही दुःख का कारण है, इसी का समुच्छेद करना प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है।" (१) तमेव सच्चं निसंकं जं जिणे पवेइयं ।। -आयारो (२) दोघनिकाय, सिलोकावाद सूत्त ३१ पृष्ठ २७१-२७६ । -~-पातंजल योग प्रदीप (३) धम्मपद् गा ३४५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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