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[ ३४३ ] मिथ्यात्वादि जो पाँच बंध हेतु हैं उनमें से पूर्व हेतु विद्यमान होनेपर उत्तर हेतु विद्यमान रहते हैं किन्तु उत्तर हेतु हों तो पूर्व हेतु हो भी सकते है और नहीं भी हो सकते हैं--इसकी भजना समझनी चाहिए।' यथा-प्रपम गुणस्थान में मिथ्यात्वदि पांच बंध हेतु हैं किन्तू चतुर्थ गुणस्थान में मिथ्यात्व को बाद चार बंध हेतु है।
सत्ता की दृष्टि से बात्मा की शक्ति समान है। मुनि श्री नथमलजी ने कहा हैं।
"अव्यवहार राशि" की आत्मा में जो शक्ति है वही व्यवहार राशि की आत्मा में है। दोनों में शक्ति का कोई अन्तर नहीं है। अन्तर केवल अभिव्यक्ति का है। व्यवहार राशि की आत्माओं में चेतना की केवल एक रश्मि प्रकट होती है। वह है स्पर्श बोध xxxi
__ - सत्य की खोज पृ० ७९ अस्तु अव्यवहार राशि के जीव नियमतः मिथ्याइष्टि होते हैं। मिथ्यात्व कर्म के उदय से सर्वत्र संशय रूप ही तत्त्वों में अरुचि पैदा होती है, इस अरुचि को संशय ज्ञान का सहाय्य मिलता है। अतः इसको संशय मिण्यात्व कहते हैं। आगम कथित जीवादिक पदार्थों में ज्ञानावरण कर्म के उदय से और सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से जो यह वस्तु स्वरूप है या यह है ऐसी जो चंचल मति होती है उसको शंका अविचार कहते हैं। यह अतिचार सम्यगदर्शन को मलिन बनाता है। इसलिए यह अतिचार है । दोरी, सांप, पुरुष, खूट आदि में जो संशय होता है वह अतिचार माना जायेगा तो सम्यगदर्शन का निःशंकितांग ही दुर्लभ हो जायगा। . अर्थात् सम्यग्दर्शन छद्मस्थों को भी दोरी, सर्प, खूट, मनुष्य इत्यादि पदार्थों में यह रज्जु है ? या सर्प हैं ? यह खूट है या मनुष्य है इत्यादि अनेक प्रकार का संशय उत्पन्न होता है तो भी वे
(१) आहत दर्शन दीपिका, चतुर्थ उल्लास, बंध अधिकार पृ० १७५ (२) अनादि निगोद-नित्य निगोद को अव्यवहार राशि कहते हैं।
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