SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 364
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ३३७ ] सकती।'-मिथ्यात्वी को आसक्ति, द्वेष और मोह से दूर हटकर विषय का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । मिण्यात्वी अंत:करण को पवित्र करे। छान्दोग्य उपनिषद् शांकर भाष्य में कहा है कि सत्त्व शुद्धि हो जाने से अनंत पुरुष के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान और अविच्छिन्न स्मृति की प्राप्ति हो जाती है। मिथ्यात्वी अभ्यास और वैराग्य से सफलता को प्राप्त हो सकता है । विष्णुपुराण में कहा है तच्चिताविपुलादक्षीणपुण्यचया तथा। सदप्राप्तिमद्दुःखविलीनाशेषपातका ॥ चिन्तयन्ती जगत्सुति परब्रह्मस्वरूपिणम् । निरुच्छ्वासतया मुक्तिं गतान्या गोपकन्यका ॥ -विष्णुपुराण, ५। १३ । २१-२२ अर्थात् किस प्रकार भाग्यशालिनी गोपी पाप और पुण्य के बंधनों से मुक्त हो गयी थी। भगवान के ध्यान से उत्पन्न जीव आनंद ने उसके समस्त पुण्य कर्म जनित बंधनों को काट दिया। फिर भगवान की प्राप्ति न होने की परम भाकुलता से उसके समस्त पाप धुल गये और वह मुक्त हो गयी। वैदिक दर्शन में भी भक्ति की विवेचना में पहला स्थान 'श्रद्धा' कहा है।' एक बर्तन से दूसरे बर्तन में तेल डालने पर जिस प्रकार एक अविच्छिन्न धारा में गिरती है, उसी प्रकार अभ्यास से मिष्यात्वी का मन जब शुभ ध्यान में केंद्रित हो पाता है तो वह कर्मों के बंधनों को शीघ्र ही गोड़ डालता है-फलत: उसे सम्यक्त्व प्राप्त हो जाती है। हिंसा को सुख का कारण समझना-विपरीत मिण्यात्व है । मरण के सतरह प्रकार में से एक मरण-बाल मरण भी है। बाल मरण के पांच भेद हैं । अज्ञानी जीवों के मरण को बाल मरण कहते हैं (१) भक्तियोग पृ० ३७ (२) सत्त्व शुद्धौ च सत्या यथावगते भूमात्मनि ध्रुवा अविच्छिन्ना स्मृतिः अविस्मरणं भवति । -छान्दोग्य उपनिषद् शांकरभाष्य ७।२६।२ (३) शांडिल्य सूत्र २।१।४४ (४) भगवती आराधना १। २५-अपराजितसूरि-टीका Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy