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________________ [ ३२५ 1 अर्थात् बालंबन के भी रूपी और अरूपी-इस प्रकार दो भेद हैं। परम अर्थात् मुक्त आरमा ही अरूपी आलंवन है। उस अरूपी आलंबन के गुणों को भावना रूप जो ध्यान है वह सूक्ष्म ( अतीन्द्रिय विषयक) होने से आलंबन योग कहलाता है। सालंबनध्यान के अधिकारी मिथ्यात्वी भी हो सकते हैं लेकिन निरालंबन ध्यान के नहीं। व्यवहार हो या परमार्थ, सब जगह उच्च वस्तु के अधिकारी कम ही होते है, उदाहरणत:-जैसे रत्नों के परीक्षक (जौहरी) कम होते हैं, वैसे ही आत्मपरीक्षक कम होते हैं। शास्त्रानुसार वर्तन करने वाला एक ही व्यक्ति हो तो वह महाजन ही है । अनेक लोग भी अगर अज्ञानी हैं तो वे सब मिलकर भी अंघों के समूह की तरह वस्तु को यथार्थ नहीं जान सकते । सद्गुष्ठान क्रिया में अनुरक्त रहने वाले मिथ्यात्वयों की अपेक्षा असदनुष्ठान ये दत्तचित्त मिथ्यात्वी अनंत गुणे अधिक हैं। समता भाव में रमण करने वाले मिथ्यात्वी भी कम हैं। विधि मार्ग के लिए निरंतर प्रयत्न करते रहने से कभी किसी एक व्यक्ति को भी शुद्ध धर्म प्राप्त हो जाय तो उसको चोदह लोक में अमारीपटह बज वाले की सो धर्मोन्नति हुई, समझना चाहिये । अर्थात् विधि पूर्वक धर्म क्रिया करने वाला एक भी व्यक्ति अविधि पूर्वक धर्म क्रिया करने वाले हजारों लोगों से अच्छा है।' आचार्य हरिभद्र ने कहा है कि "अध्यात्म, भावना, ध्यान, समत्ता और वृत्तिसंक्षेप ---इन पांच योगों का समावेश चारित्र में हो जाता है। अब यह प्रश्न उठता है कि जब चारित्री में ही योग का संभव है तब निश्चिय दृष्टि से चारित्र होन किन्तु व्यवहार मात्र से श्रावक या साधु की क्रिया करने वाले को उस क्रिया से क्या लाभर । प्रत्युत्तर में कहा गया है कि व्यवहार मात्रा से जो क्रिया अपुन बंधक ( मिथ्यात्वी का एक प्रकार ) और सम्यग् दृष्टि के द्वारा की जाती है, वह योग नहीं वह योग का कारण होने से योग का बीज मात्र है।" (१) योगवि शिका श्लोक १६ । टीका । (२) योगविशिका श्लोक १५-टीका । (३) बोगविंशिका फ्लोक ३--टीका। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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