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________________ [ ३२४ ] प्राप्त होते हैं। जीव और कर्म का यह मेल ठीक वैसे ही होता है जैसे दूत्र ओर पानी का या अग्नि या लोह पिण्ड का।' आचार्य शीलांक ने कहा है___ अण्णे वि सिरिय-मणुय-देवा अट्टमाणोवगया कोह-माण-मायालोमवट्टिणो णिस्सीला णिव्वया सुहपरिणामरहिया संसारसूयरा मावाविति-पुत्त-कलत्तणेहणियलिया तिरिएसु उववज्जति ! जे पुण पययीए भदया मंदकसाया धम्मरुचिणो दाणसीला ईसीसिसुहमवसाया ते मणएसु उववज्जति । -चउप्पन्न० पृ० ५२ अर्थात् जो मिथ्यात्वी आतध्यान में तल्लीन रहते हैं, क्रोध, मान, माया, लोभ की तीव्रता वाले हैं, शोल रहित, व्रत रहित, शुभपरिणाम रहित, मायाकपट वाले हैं वे तिर्य च योनि में उत्पन्न होते हैं तथा जो मिथ्यात्वो प्रकृति से भद्रिक हैं, मंदकषाय वाले हैं, धर्म के प्रति श्रद्धा रखते हैं, सुपात्र दान देते हैं, शुभ बध्यवसाय वाले हैं वे मनुष्य योनि में उत्पन्न होते है। मुग्धभट्ट ने मिथ्यात्व से मिवृत्त होकर सद्संगति से सम्यक्त्व को प्राप्त किया। उसकी सम्यक्त्व बही बढ थी। सम्यक्त्व को स्थिरीकरण के लिए उसका नाम प्रसिद्ध है। शालिग्राम नगर था। उसमें दामोदर नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सोमा था। उसके पुत्र का नाम मुग्धभट्ट था ।' उसकी जिन वचनों में दृढ श्रद्धा थी। ऐसी दृढ श्रद्धा कम देखने में आती है । योग का दूसरा नाम धान भी है। ध्यान के मुख्यतः दो भेद हैं-सालंबन और निरालंबन । स्थूल वालंबन का ध्यान सालंबन योग और सूक्ष्म आलंबन का ध्यान निरालंबन योग है । हरिभद्र सूरि ने कहा है आलंबण पि एयं, रूवमरूवी य इत्थ परमुति । तग्गुणपरिणइरूवौ, सुहुमोऽण्णालंबंणो नाम ॥ -योगविशिका श्लोक १६ (१) कोरइ जीएण हेडहिं जेणन्तो भण्णए कम्मं । -कर्मग्रन्थ (२) चउप्पन्न० पृ०५३ । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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