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________________ [ २६७ ] जब मिथ्यात्वी शुभ लेक्ष्यादि से तीव्र कवाय रहित हो जाता है सब उसमें आत्मोन्मुखता (आत्म दर्शन की प्रवृत्ति) का भाव जागृत होता है। सम्यगदर्शन का व्यावहारिक रूप तत्त्वश्रदान है ।' आत्मदर्शी समदर्शी हो जाता है और इसलिये वह समदर्शी होता है। यह निश्चय दृष्टि की बात है और वह आत्मानुमेय या स्वानुभवगम्य है । कषाय की मंदता होते ही सत्य के प्रति रुचि सीव हो जाती है। उसकी गति मियात्व से सम्यक्त्व की ओर हो जाती है । उसका संकल्प कर्व मुखी और आत्मलक्षी हो पाता है । बोवादि नव-तत्त्व के सही श्रद्धान से मिथ्यात्व का नाश होता है, यही सम्यक्त्व प्रवेश का द्वार है। तत्त्व श्रद्धा का विपर्यय आग्रह और अभिनिवेश से होता है अभिनिवेश का हेतु तीव्र कषाय है। सम्यक्त्व आ पाने से सत्य को सरल और सहज भाव से पकड़ लेता है। व्यवहारनय से वस्तु का वर्तमान रूप (वैकारिक रूप ) भी सत्य है। निश्चय नब से वस्तु का कालिक (स्वाभाविक रूप ) सत्य है। सरख के बान बोर सत्य के आचरण द्वारा स्वयं सत्य बन जाना यही मेरे दर्शन-जनदर्शन या सत्य की उपलब्धि का मर्म है । प्रथम गुणस्थान में मिथ्यात्वी के मिथ्यात्व की प्रधानता से बंध होता है। सुमतिकीर्ति सूरि ने कहा है। षोडशप्रकृतीनां बंधे मिथ्यात्वप्रत्ययः प्रधानः। -पंचसंगह ( दि०) अधि.१। ४८८ । टीका अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्व की प्रधानता से बंध होता है। बाचार्य अमितगति ने कहा हैतेजः पद्मयोराद्यानि सप्तः । शुक्लायां त्रयोदश सयोगांतानि । -पंचसंग्रह-संस्कृत (वि०) परिच्छेद ४ । पृ. १८४ १-तहियाणं तु भावाण, सम्भावे उवएसणं । भावेण सदहन्तस्स, सम्मत्त तं वियाहियं । - उत्त. २८ । १५ २-आवस्सयं सूत्तं ३८ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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