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________________ [ २६६ ] मिष्यावी कम से कम निरपराधी सोवों की संकल्पपूर्वक हिंसा का प्रत्याख्यान करे । महानिध्यात्व में अनुरंजित, महाकृष्ण लेण्या में मरण-प्राप्त होकर सुभूम और ब्रह्मचक्रवर्ती सातवीं नरक में गए । कहा है श्रूयते प्राणिघातेन, रौद्रध्यानपरायणौ । सुभूमो ब्रह्मदत्तश्च सप्तमं नरकंगतौ ॥ -योगशास्त्र, द्वितीय प्रकाश, क्लोक २६ अर्थात् प्राणियों की हत्या से रौद्रध्यानपरायण होकर सुभूम और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती सातवीं नरक में उत्पन्न हुए। जिसकी जड़ में राम, शील और दया है, ऐसे जगत्कल्याण कारी धर्म को छोड़कर मिध्यात्वियों ने हिंसा को भी धर्म की कारणभूत बता दी। अर्थात् कषायों और इन्द्रियों पर विजय रूप राम, सुन्दर स्वभावरूप शील और पीवों पर अनुकम्पा र दया; ये तीनों विस धर्म के मूल में हैं, वह धर्म अभ्युदय (बहलोकिक उन्नति) और निःश्रेयस (पारलौकिक कल्याण या मोक्ष) का कारण है । इसप्रकार का धर्म जगत के लिए हितकर होता है। परन्तु खेद है कि ऐसे शम शोलादिमय धर्म के साधनों को छोड़कर हिंसादि को धर्म साधन बताते हैं और वास्तविक धर्म साधनों की उपेक्षा करते हैं। इस प्रकार उलटा प्रतिपादन करने वालों में बुद्धिमन्दता स्पष्ट प्रतीत होती है। किसी भी वस्तु के स्वीकरण की पहली अवस्था रुचि है । रुचि से श्रुति होती है या श्रुति से रुचि-यह बड़ा पटिल प्रश्न है । जान, श्रुति, मनन, चिन्तन, निदिध्यासन-ये रुचि के कारण है-ऐसा माना गया है । दूसरी ओर यथार्थ रुचि के बिना यथार्थ ज्ञान नहीं होता है-यह भी माना गया है । सत्य की रुचि होने के पक्षात् ही उसकी जानकारी का प्रयत्न होता है । ज्ञान से रुचि का स्थान पहला है। मिण्याइष्टि के रहते बुद्धि में सम्बन भाव नहीं आता । यह प्रतिबंध दूर होते ही शान का प्रयोग सम्बग् हो जाता है । इस दृष्टि से सम्बगहष्टि को सम्यग ज्ञान का कारण या उपकारक भी कहा जाता है। ज्ञान और क्रिया के सम्बग भाव का मूल रुचि है । इसलिए वे दोनों रुचि सापेक्ष है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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