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"तं णो खल कण्हा, एतं भूयं वा भव्वं वा भविस्सइ वा जण्णं वासुदेवा चइत्ता हिरण्णं जाव पव्वइस्संति । से केणट्टे णं भंते । एवं वुच्चइ
एतं भूयं वा जाव पव्वइस्संति ? कण्हाइ ? अरहा अरिट्ठणेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी - एवं खलु कण्हा । सवे वियणं वासुदेवा पुग्वभवे णियाणकडा, से एएणट्ठेणं कण्हा एवं वुच्चइ --ण एतं भूयं जाव पव्वइस्संति । — अंतगडदशाओ सूत्र वर्ग ५, अ० १, सू १२ से १४ अर्थात् ऐसा कभी नहीं हुआ है, नहीं होता है, और न होगा कि वासुदेव अपने भव में संपत्ति को छोड़कर दीक्षा नहीं लेते हैं, ली नहीं है, लेंगे भी नहीं । सभी वासुदेव पूर्व भव में निदान कूप ( नियाणा करने वाले ) होते हैं अतः प्रवर्जित नहीं होते हैं ।
अस्तु कृष्ण वासुदेव ने सम्यक्त्व ( क्षायिक सम्यक्त्व ) को प्राप्त करने के बाद तीर्थंकर नाम कर्म का बंध किया ।
(१५) मगध देश के अधिपति राजा श्रेणिक ने साधुओं की संगति के कारण विशुद्ध लेश्या का परिणमन होने से अनंतानुबंधीय चतुष्क- दर्शनत्रिक को क्षय कर ( मिथ्यात्व भाव से सर्वथा निवृत्त होकर ) क्षाधिक सम्यक्त्व को प्राप्त किया । राजा श्रेणिक के भी क्षाधिक सम्यक्त्व को प्राप्ति के पूर्व प्रथम गुणस्थान में ही कापीत लेया में प्रथम नरक का आयुष्य बंध गया था । सम्यक्त्व के बाद राजा श्रेणिक ने भी तीर्थंकर नाम कर्म बंधने योग्य बीस स्थानकों' में से कतिपय स्थानों का सेवन किया, फलस्वरूप तीर्थंकर नाम कर्म का बंध किया । राजा श्रेणिक भी देश विरति व सर्वविरति को ग्रहण कर सका ।
कहा जाता है कि राजा श्रेणिक मंडिकुक्षि नामक उद्यान में अनाथी मुनि को देखा । तत्पश्चात् उन्हें वंदन-नमहकार किया । विविध प्रश्नों का समाधान पाया। कहा है
एवं णित्ताणं स रायसीहो, अणगारसीहं परमाइ भत्तिए । सओरोहो सपरियणो सबंधवो, धम्माणुरत्तो विमलेण चेयसा ॥
-उत्त० अ २० । गा ५२.
(१) ज्ञाता सूत्र अ० ८
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