SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २६८ ] से मरण प्रास कर, प्रत्येक वनस्पति काय में (सांव्यवहारिक राशि में) उत्पन्न हुई। वहाँ से मरण प्राप्त कर मरुदेवी के रूप में उत्पन्न हुई। मरुदेवी माता मिथ्यात्व से निवृत्त होकर यावत् सिद्ध बुद्ध-मुक्त हुई। मरुदेवी माता ने अपने इस भव में मिथ्यात्व से सम्यक्त्व प्राप्त किया। दीक्षा ग्रहण की, केवल ज्ञान प्राप्त किया, धर्मोपदेश माला में जयसिंह सूरि ने कहा उप्पन्ने य तित्थयरस्स केवले पयट्टो भरहो मरुदेविं पुरओ हत्थिखंधे काऊण महासमुदएण भगवओ वंदणत्थं । भणिया य सा तेण-अम्मो ! पेच्छासु तायस्स रिद्धि । तत्तो तित्थयर - सहायन्नणसंजाय हरिसाए पणळं तिमिरं । अदिठं पूव्वं दिळं समोसरणं । एस्थंतरम्मि संजाय-सुह-परिणामाए समुच्छलियं-जीव-वीरिवाए समासाइय-खवगसेढीए उत्पन्नं केवलनाणे । -धर्मोपदेशमाला पृ० ३० अर्थात भगवान ऋषभदेव को केवल जान उत्पन्न हुआ है-ऐसा सुनकर उन्हें वंदन करने के लिए मरुदेवी माता भरत चक्रवर्ती के साथ धन्दार्थ धायी। उसने अपूर्व समोसरण देखा। भावों की विशुद्धि से मरुदेवी माता ने हस्ति पर बैठी हुई चारित्र ग्रहण कर केवलज्ञान उत्पन्न किया। (१४) द्वारिका नगरी के वासी कृष्ण वासुदेव (जो इस अवसर्पिणी काल के नवबें वासुदेव थे।) ने साधुओं की संगति तथा सदनुष्ठानिक क्रियाओं के द्वाराविशुद्ध लेश्या, प्रशस्त अध्यवसाय, शुभ परिणाम द्वारा मिथ्यात्व से निवृत्त हो सम्यक्त्व को प्राप्त किया । यद्यपि उनके तीसरे नारकी का आयुष्य-प्रथम गुणस्थान में ही बंध गया था। आयुष्य के बंधन के समय-अशुभ लेश्या थी। आगामी उत्सप्पिणो काल में बारहवे तीर्थकर' (अमम) होंगे। वासुदेव-देशविरति अथवा सर्वविरति को प्राप्त नही कर सकते हैं क्योंकि सब वासुदेव पूर्व जन्म में कृत निदान के द्वारा होते हैं। अंतगडदनाओ में कहा है१-अतगडदशाओ वर्ग ५ । अ १ । सू १८ २-तीर्थ कर सुर जुगलिया रे, वासुदेव बलदेव । ए पंचम गुण पावै नहीं रे, ए रीत अनादि स्वयमेव । -चौबोसी-अनंतनाथ स्तवमा Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy