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[ २६२ ] पूर्वस्मिन् काले तप्तम्-अनुष्ठितं तप एव धनं येषां ते तप्त-तपोधना:पंचाग्न्यादितपोविशेषेणनिष्टप्तदेहाः, त एवमम्भूताः शीतोदकपरिभोगेन, उपलक्षणार्थत्वात् कंदामूलफलायुपभोगेन च 'सिद्धिमापनाः' सिद्धिंगताः, 'तत्र' एवम्भूतार्थसमाकर्णने तदर्थ सद्भावावेशात् 'मंदः, अझोऽस्नानादित्याजितः प्रासुकोदकपरिभोगभग्नः संयमानुष्ठाने विषीदति, यदि वा तत्रैव शीतोदकपरिभोगे विषीदति लगति निमज्जतीति यावत् , नत्वसौ वराक एवमवधारयति, यथा तेषां तापसादिप्रतानुष्ठायिनां कुतश्चिज्जातिस्मरणादिप्रत्ययादाविर्भूतसम्यग्दर्शनानांमौनीन्द्रभाव संयमप्रतिपत्या अपगतज्ञानावरणीयादिकर्मणा भरतादीनामिव मोक्षवाप्ति न तु शीतोदकपरिभोगादिति ।
-सूय० श्रु १ । अ ३ । उ४ । गा ११,६२ । टीका अर्थात् परमार्थ को न जानने वाले कतिपय अज्ञानी यह कहते हैं कि पूर्व समय में पल्कलचोरी और तारागण ऋषि आदि महापुरुषों ने तपरूपी धन का अनुष्ठान तथा पंचाग्नि सेवन आदि तपस्याओं के द्वारा अपने शरीर को खूब तपाया था । उन महापुरुषों ने शीतल बल का उपयोग तया कंद, मूल, फल आदि का उपभोग करके सिद्धि लाभ किया था। परन्तु उनका यह कथन युक्ति संगत नहीं है। वे लोग तापस आदि के व्रत का अनुष्ठान करते थे उनको किसी कारण पश (शुभ अध्यवसाय, शुभलेश्यादि से) जातिस्मरण शान प्रास हो गया फलतः सम्यगदर्शन की प्राप्ति हुई थी और मौनोन्द्र संबंधी भाव संयम की प्राप्ति होने से उनके शानधरणीयादि कर्म नष्ट हो गये थे-इस कारण उन्हें भरत आदि की तरह मोक्ष प्राप्त हुआ था परन्तु शीतल जल का उपभोग करने से नहीं।
सर्व विरति परिणाम सपा भापलिंग के बिना पोषों को विनाश करने वाला जीत कच्चा बल का पान और बोषादि के उपभोग करने से कभी भी कर्म क्षयरूप मोक्ष प्राप्त हो नहीं सकता है । जिन लोगों को मोक्ष को प्राप्ति हुई थी उनको किसी कारण वश पालिस्मरण आदि शान के उदय होने से सम्यग शान सम्यग-दर्शन और सम्यग चारित्र की प्राप्ति होने के कारण हो हुई थी।
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