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भगवान के सामने गया और वंदन-नमस्कार किया । वाष में भगवान को पुष्कल अशन, पान, खादिम और स्वादिम से प्रतिला गा-ऐसा विचार कर संतुष्ठ हमा । यह प्रतिलाभते समय भी संतुष्ट था बोर प्रतिलामित करने के बाद भी संतुष्ट रहा फलस्वरूप अपरिमित संसार से परिमित संसार किया-देव का बांधा । कहा है
"तएणं तस्स विजयस्स गाहावइस्स तेणं दव्वसुद्धणं दायगसुद्धणं पडिगाहगसुद्धणं तिविहेणं तिकरणसुद्धणं दाणेण मए पडिलामिए समाणे देवाउए णिबद्ध, संसारे परित्तीकए।"
-भगवती श १५ । सू२६ - अर्थात विजय गाथापति ने द्रव्य की शुद्धि से, दायक की शुद्धि से बोर पात्र शुद्धि से तथा त्रिविध (मन, वचन, काया) और तीन करण (कृत, कारित अनुमोदित ) को शुद्धि से मुझे ( भगवान महावीर को) प्रतिलाभित करने से देव का आयुष्य बांधा तथा संसार परिमित किया ।
विजय नामक गाथापति की तरह आनंद गाषापति ने भगवान महावीर के दूसरे मास क्षमण के दूसरे पारणे में भगवान को दान दिया, फलस्वरूप देव का आयुष्य बांधा-संसार-परिमित किया ।
इसीप्रकार सुनंद नाथापति ने तथा बहुल ब्राह्मण ने भगवान को शुद्ध दान दिया फलस्वरूप देव का आयुष्य बांषा-संसार परिमित किया । मिण्याती री करणी री चौपई ढाल २ में आचार्य भिक्षु ने कहा है
सुलभ थों विजय नामें गाथापति रे, तिण प्रतिलाभ्या भगवंत श्री महावीर रे । तिण परत संसार कीयो तिण दान थीरे, दोन सू पांम्यो भवजल तीर ॥६॥ आणंद में सुदंसण (सुनंद) विजय नीपरें रे, बले बहुल ब्राह्मण तिम हीज जाण रे। त्यां वीर ने दान देइ च्यारू जणारे, परत संसार कीयों छै देता पण रे ॥१०॥
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