SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २५२ ] प्राप्ति कर लेते हैं। यह ध्यान रहे कि कोई एक निगोद का जीव प्रत्येक वनस्पति काय में उत्पन्न होकर फिर वहाँ से मनुष्य भव को प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। यदि निगोद और नारकी के जीवों के प्रारंभ में अकाम निर्जरा से आत्म उज्ज्वलता नहीं होती तो उन जीवों में से निकल कर कोई जीव मोक्ष मार्गका अधिकारी-आराधक नहीं हो सकता । __ श्रीमद् आचार्य भिक्षु ने पुण्यपदार्थ की ढाल (नव पदार्थ की चौपई ) में तथा श्री मज्जयाचार्य ने भ्रमविध्वंसनम के प्रथम अधिकार में अकाम निर्जरा को निरवद्य क्रिया में माना है। उपयुक्त उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अकाम निर्जरा वीतराग देव की आज्ञा के बाहर नहीं मानी पासकती। आत्मा की जहाँ आंशिक या पूर्ण उज्ज्वलवा हुई है वहाँ जान लेना चाहिये कि उस क्रिया (निरवध) में वीतराग देव की आज्ञा है-वहाँ धर्म है। आचारांग में कहा है “आणाए धम्माए" अर्थात भगवान की आशा में धर्म है। मोक्ष के दान-शील तप, भावना-- ये चार मार्ग बताये गये हैं। मिथ्यात्वी के संपर नहीं होता है अतः अप्रत्याख्यान किया सब मिथ्यात्वी के एक समान लगती है क्योंकि अधिरति की अपेक्षा परस्पर मिथ्यात्वी एक समान है। चूंकि अविरति का सद्भाव दोनों में समान है। हाथी और कुथु के अप्रत्याख्यान किया समान लगती है । कहा है से नूर्ण भंते ! हथिस्स य कुंथुरम य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जह ? हंता, गोयमा ! हस्थिरस य कुथुस्स य जाव कज्जइ । से केणणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव कज्जइ ? गोयमा ! अविरति पडुच्च, से तेण?णं जाव कज्जइ । -भगवती श ७ । उ ८ । १६३, १६४ (१) प्रज्ञापना पद २० (२) निगोद का वोव अनंतर भव में मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता। ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy