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________________ [ २४८ उसको तथा भाव से नहीं जानता है, नहीं देखता है, किन्तु अन्यथा भाव से से जानता है, देखता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि विशिष्ट मिथ्यात्वियों के लिये भावितात्मा अणगार का व्यवहार हुआ है । कतिपय वे भावितात्मा अणगार अपने इसी भव में सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेते हैं तब उनका विभंग ज्ञान - अवधिज्ञान रूप में परिणत हो जाता है । २ : मिथ्यात्वी - आध्यात्मिक विकास की भूमिका पर दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से तत्व रुचि में मोहभ्रांति होती है। जब मिथ्यात्व तत्त्व में रुचि रखता है इसप्रकार रुचि रखने से सक्रिया के प्रयत्न से वह कदाचित् क्षयोपशम सम्यक्त्व उपग्न कर लेता है । कहा है , दंसणमोहणिज्जेणं भंते! कम्मे कतिविधे पन्नन्त, गोयमा ! तिविहे पन्नत्ते, तंजा -- सम्मत्तवेयणिज्जे, मिच्छत्तवेयणिजे, सम्मामिच्छत्तवेय णिज्जे य । - प्रज्ञापना पद् २३। उ २ सू १६६१ टीका-तत्र जिनप्रणीत तत्व श्रद्धानात्मकेन सम्यत्वरूपेण यदुवेद्यते तत्सम्यक्त्ववेदनीयं यत्पुनर्जिन प्रणीततत्त्वाश्रद्धानात्मकेन मिध्यात्वरुपेण वेद्यते, तन्मिथ्यात्ववेदनीयं यत्तु मिश्ररूपेण -- जिन प्रणीत तवेषु न श्रद्धानं नापि निन्देत्येवंलक्षणे न वेद्यते तन्मिश्रवेदनीयं, आह सम्यक्त्ववेदनीयं कथं दर्शनमोहनीयं ? न हि तद्दर्शनं मोहयति, तस्य प्रशमादिपरिणाम हेतुत्वात् उच्यते, इह सम्यक्त्ववेदनीयं मिथ्यात्व प्रवृतिः, ततोऽतिचारसंभवात् औपशमिकक्षायिकदर्शनमोहनाच्चेदं दर्शनमोहनीयमित्युच्यते । अर्थात् दर्शन मोहनीय कर्म तीन प्रकार का है, यथा— सम्यक्त्व वेदनीय, मिध्यात्व वेदनीय और सम्यगमिध्यात्व वेदनीय | बिनेश्वर द्वारा उपदिष्ट तत्व में श्रद्धा का वेदन करता है वह सम्यक्त्व वेदनीय है; जिनेश्वर द्वारा उपदिष्ट तत्त्व में अश्रद्धा का वेदन करता है वह मिध्यात्व वेदनीय है । जिनेश्वर द्वारा उपदिष्ट तत्व में मिश्र परिणाम का वेदन करता है वह मिश्र वेदनीय है । " Jain Education International 2010_03 " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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