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[ २४७ ] और उपचार से पाप के हेतु को पाप कहते हैं जैसे प्राणवध जिस पाप का हेतु होता है उसे प्राणातिपात पाप कहते हैं आदि । आचारांग में कहा है
___ "आज्ञा के कार्यो में बल पराक्रम करना चाहिए, आज्ञा के बाहर के कार्यो में बल पराक्रम नहीं करना चाहिए। यह कुशल पुरुषों का दर्शन है । अतः मिथ्यात्वी की शुद्ध पराक्रम की क्रिया आशा में है।"
अतः मिथ्यात्वी को सक्रियाओं की अपेक्षा आगम में बाल तपस्वी से भी अभिहित किया गया है।
१ (ग) : मिथ्यात्वी को भावितात्मा अणगार से संबोधन जो मिथ्यात्वी घर बार आदि का त्याग कर साधु हो जाते हैं, लेकिन सम्यक्त्व अभी तक प्राप्त नहीं किया है। उन्हें अनगार इसलिए कहा गया है कि वे घर को सर्वथा प्रकार छोड़ देते है तथा शम, दम आदि नियमों के धारण करने से भावितात्मा कहा गया है। यद्यपि वह अनगार बन गया है लेकिन क्रोधादि कषाय को क्षय नहीं किया है अतः वह मायी है और मिच्यादृष्टि है। वह वीर्य आदि लब्धि की विकुर्वणा करता है । कहा है___"अणगारे णं भंते ! भावियप्पा माई, मिच्छदिट्ठी वीरियलद्धीए, वेउब्वियलद्धीए, विभंगणाणलद्धीए वाणारसिं णयरी समोहए, समोहणित्ता रायगिहे णयरे ख्वाईजाणइ, पासइ ? हंता, जाणइ, पासइ ।
--भग० श ३ ३ ६। सू २२२ अर्थात् राजगृहनगर में स्थित मिध्यादृष्टि, मायो भावितात्मा अनगार वीर्यलग्धि से, वैक्रिय लब्धि से और विभंग ज्ञान लब्धि से वाणारसी नगर की विकुर्वणा करके उन रूपों को जानता है घोर देखता है। उसका दर्शन विपरीत होता है, अत: वह तथा भाव से नहीं जानता है, नहीं देखता है किन्तु अन्यथाभाव से जानता है, देखता है।
वह मायी मिध्यादृष्टि भावितात्मा अणगार अपनी वोर्यल ब्धि से, वैक्रिय लब्धि से और विभंगशान लब्धि से दो नगर के बीच में एक बड़े जनपद वर्ग की विकुर्वणा कर सकता है। परन्तु उसका दर्शन विपरीत होता है अतः यह
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