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[ २४५ ] अर्थात् वह पूरण बालतपस्वी उस उदार, विपुल, प्रदत्त और प्रग्रहीत बाल-. तप कर्म द्वारा (१२ वर्षतक निरंतर बेले-बेले की तपस्या की) शुष्क-रुक्ष हो गया। वह भी बेमेल सन्निवेश के बीचो-बीच होकर निकला, निकलकर पादुका (खड़ाऊ) और कुडी आदि उपकरणों को तथा चारखंड वाले लकड़ी के पात्र को एकांत में रख दिया। फिर बेभेल सन्निवेश के अग्निकोण में श्रद्ध'निर्वनिक मंडल को साफ किया । फिर संलेखना असणा से अपनी पारमा को युक्त करके आहार-पानी का त्याग करके वह पूरण बालतपस्वी पादोपगमन अनशन स्वीकार . किया।
इस प्रकार मिथ्यात्वो जो विविध प्रकार की तपस्या करते हैं, तपस्या से शरीर को शुष्क कर देते हैं उन मिष्यात्वियों को आगम में बाल तपस्वी से संबोधित किया गया है। उनके सकाम-अकाम दोनों प्रकार की निर्जरा होती है। कहा है___ "क्रियावादिनामक्रियावादिनां च मिथ्यादृशां सकाम-निर्जरा भवति न वा ? यदि सकामनिर्जरा, तर्हि ग्रन्थाक्षराणि प्रसाद्यानीति प्रश्ने, उत्तरम्-क्रियावादिनाम-क्रियावादिनां च केषाचित् सकामनिर्जरापि भवतीत्यवसीयते यतोऽकामनिर्जराणामुत्कर्षतो व्यन्तरेष्वेव, बालतपस्विनां चरकादीनां तु ब्रह्मलोकं यावदुपपातः प्रथमोपांगादावुक्तोऽस्तीति, तदनुसारेण पूर्वोक्तानां सकामनिर्जरेति तत्त्वम् ।"
-सेन प्रश्नोत्तर, उल्लास-३ अर्थात् कहीं-कहों क्रियावादी, अक्रियावादी आदि मिथ्यात्वी के सकाम निर्जरा भी होती है । मिथ्यात्वी के सद्प्रवृत्ति के द्वारा पुण्य का बंध होता है । जिसप्रकार गेहूँ रूपी निर्जरा के साथ ( सद्प्रवृत्ति ) भूसा रूपी पुप्य अपने आप होता है, उसी प्रकार सद्-प्रवृत्ति के द्वारा-चाहे मिथ्यात्वी भी क्यों न होनिर्जरा तो मुख्य रूप से होती ही है, परन्तु साथ-साथ पुण्य का भी बंध होता है । उस पुण्य के लिए कोई अलग प्रयत्ल नहीं करना पड़ता।
अस्तु प्रथम पुरुष अर्थात वह मिथ्यात्वी जो सद् क्रिया में तत्पर रहता है.. उसे भगवान ने बाल तपस्वी के नाम से अभिहित किया है। इस प्रकार के
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