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। २४३ । अर्थात् प्राणातिपातआदि की विरति को शुभ दो युष्य के बंधन में कारण माना है । कहा है
महाप्रत, अणुव्रत, बालप्तप और अकामनिर्जरा से जीव देव का बायुष्य बांधता है । सम्यगृहष्टि जीव (मनुष्य वा तिर्यच) देवगति का ही आयुष्य बांधता है । तथा
स्वभावतः बल्पकषायी, दानकी रुचि वाला, खोल (संयम रहित मध्यमगुण) विनय दयादि सहित जीव मनुष्य का आयुष्य बांधता है । देव और मनुष्य का आयुष्य शुभ है।
(१) आगों में अनेक स्थलों पर बालतपस्वी का उल्लेख मिलता है। श्री मज्जयाचार्य ने प्रश्नोत्तर तत्वबोध में गौशालाधिकार में वेसिवायण ऋषि के लिये 'बालतपस्वी' का व्यवहार किया है। बालतपस्वी अर्थात् प्रथम गुणस्थान (मिथ्याडष्टि गुणस्थान) के व्यक्ति जो तपस्यादि करते हैं, उन्हें बालतपस्वी नाम से संबोधित किया है। जैसा कि भगवती सूत्र में कहा है
"तएणं अहं गोयमा ! गोसालेणं मंखलिपुत्तणं सद्धिजेणेव कुम्मग्गामे णयरे तेणेव उवागच्छामि, तए णं तस्स कुम्मग्गामस्स गयरस्स बहिया वेसियायणे णाम बालतवस्सी छ8 छ?णं अणिक्खित्तणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिन्मिय-पगिज्मय सुराभिमुहे आयावणभूमिए आयावेमाणे विहरइ। आइच्चतेयतवियाओ व से छप्पईओ सव्वओ समंता अभिणिस्सवंति पाण-भूयजीव-सत्त-दयट्ठयाए च णं पडियाओ पडियाओ तत्थेव भुज्जो भुज्जो पच्चोरुभेइ।"
-भग० श १शसू ६० अर्थात् जब भगवान महावीर गोशाला के साथ कूर्म ग्राम में आये । उस समय कूर्मग्राम के बाहर वेश्यायन बालतपस्वी निरंतर छट्ठ-छ? तप करता था और दोनों हाथ ऊँचे रखकर सूर्य के सम्मुख खड़ा हो, आतापना ले रहा था। सूर्य की गर्मी से तपी हुई जुएँ उसके सिर से नीचे गिर रही थी और वह बालसपस्वी सर्वप्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को अनुकम्पा के लिए, पड़ी हुई जुआ को उठाकर पुन: सिर पर रख रहा था। (१) बाला इव बाला-मिथ्याशस्तेषा तपाकर्म-तपक्रिया बालतपःकर्म ।
-ठाणांग ठाषा ४ उ ४ । पू६११ टोका
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